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________________ प्रस्तायना 11 आचार्य भद्र बाहु के नाम से विख्यात ग्रन्थों में छेदसूत्र तो चतुर्दश पूर्वधर प्रथम भद्रबाहु की रचनाएँ हैं । निम्न ग्रन्थों की नियुक्तियां प्रस्तुत भद्रबाहु द्वितीय की रचनाएँ स्वीकार की जानी चाहिए : 1. अावश्यक, 2. दशवकालिक, 3. उत्तराध्ययन, 4. प्राचारांग, 5. सूत्रकृतांग, 6. दशाश्रु तस्कन्ध, 7. कल्प-बृहत्-कल्प, 8. व्यवहार, 9. सूर्य प्रज्ञप्ति, 10. ऋषि-भाषित । इन दस नियुक्तियों के लिखने की प्रतिज्ञा स्वयं भद्रबाहु ने आवश्यक नियुक्ति में की है। इनमें से अन्तिम दो को छोड़कर शेष सब उपलब्ध हैं। . प्राकृत-स्तोत्र उवसग्गहर भी इन्हीं भद्रबाहु की रचना माना जाता है । इसमें शंका करने का कोई कारण भी नहीं है। भद्रबाहु-संहिता भी उनकी कृति मानी जाती है, किन्तु इस नाम की उपलब्ध रचना उनकी हो, यह सन्देहास्पद है । ____ अोधनियुक्ति, पिंडनियुक्ति, पंचकल्पनियुक्ति, ये तीनों नियुक्तियाँ क्रम से प्राब० नि०, दशवकालिक नि० और कल्प-बृहत्-कल्प नि० की अंशरूप हैं, अत: वे पृथक् ग्रन्थ रूप में नहीं गिनी गई। इनसे भिन्न संसक्तनियुक्ति, ग्रहशांतिस्तोत्र, सपादलक्ष वसुदेवहिण्डी जैसे ग्रन्थों को उनकी रचना मानने में कई बाधाएँ हैं । 4. प्राचार्य भद्रबाहु की नियुक्तियों का उपोद्घात नियुक्ति का स्वरूप जिस प्रकार यास्क ने निरुक्त लिखकर वैदिक-शब्दों की व्याख्या निश्चित की, उसी प्रकार प्राचार्य भद्रबाहु ने प्राकृत पद्य में नियुक्तियां लिखकर जैनागम के पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या निश्चित की। उनकी इन नियुक्तियों की सामान्य रूपेण यह विधा है-वे कभी भी ग्रन्थ के प्रत्येक शब्द अथवा प्रत्येक वाक्य का अर्थ या विवरण नहीं लिखते । वे साधारणतः ग्रन्थ के नाम का प्रस्तुत अर्थ बताते हैं, ग्रथ के आधारभूत अन्य आगम प्रकरणों का उल्लेख करते हैं, तत्पश्चात् समस्त ग्रन्थ का विषयानुक्रम संक्षेप में सूचित करते हैं। इसके अनन्तर प्रत्येक अध्ययन की नियुक्ति लिखते समय सम्बन्धित अध्ययन के नाम का प्रस्तुत अर्थ स्पष्ट करते हैं और अध्ययन में वणित कुछ महत्वपूर्ण शब्दों का विवरण लिखकर सन्तोष का अनुभव करते हैं । शब्दों के प्रस्तुत अर्थ का ज्ञान प्राप्त कराने के लिये वे निक्षेप-पद्धति से शब्द के सभी सम्भावित अर्थ बताते हैं और अप्रस्तुत अर्थों का निराकरण कर, केवल प्रस्तुत अर्थ को स्वीकार करने की प्रेरणा प्रदान कर तथा तत्सम्बन्धी विशेष उल्लेखनीय बातों का प्रतिपादन कर व्याख्यापूर्ण कर देते हैं। 1. आव० नि० गा० 84-85। 2. प्राचार्य भद्रबाहु सम्बन्धी उक्त सभी तथ्य मुनि पुण्यविजयजी के महावीर जैन विद्यालय के रजत-महोत्सव अंक (पृ० 185) में प्रकाशित लेख के आधार पर लिखे गए हैं। उनका पाभार मानता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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