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________________ . गणधरवाद नहीं किया है । अन योगद्वार की अन्य स्थलों पर यह पद्धति है कि, प्रस्तुत, अप्रस्तुत समस्त भंदों का उल्लेख कर, अन्त में उपसंहार में अप्रस्तुत का निराकरण कर, प्रस्तुत क्या है? उसका उल्लेख करते हैं। 3. आवश्यक नियुक्ति के कर्ता प्राचार्य भद्रबाहु नाम के अनेक प्राचार्य होने से एक की जीवन-घटना दूसरे के नाम पर, और एक का ग्रन्थ दूसरे के नाम पर चढ़ जाने की अधिक सम्भावनायें होती हैं । उदाहरण स्वरूप, नियुक्तियों में प्रथम चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु के पश्चात् अनेक प्राचार्यों का नामोल्लेख होने पर भी आज तक यह मान्यता प्रचलित थी कि, समस्त नियुक्तियां चतुर्दश पूर्वधर रचित हैं और आज भी बहुत से श्रद्धालु जीव इसी मान्यता से जुड़े हुए हैं। साथ ही जहां श्वेताम्बर आगमों के अनुसार ऐसी कथा है कि, चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु योग-साधना के लिए नेपाल गये, वहाँ यही भद्रबाहु दक्षिण में गये थे, ऐसी कथा दिगम्बर साहित्य में प्रचलित है । ऐसा लगता है कि, ये दोनों भिन्न-भिन्न भद्रबाहु के जीवन की घटनाएं एक के न म चढ़ गई हैं। इसमें कौनसी घटना कौन से भद्रबाहु के जीवन में घटी है, यह अभी तक शोध का विषय है। अावश्यक प्रादि की जो नियुक्तियां उपलब्ध हैं वे प्रथम चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु की नहीं, अपितु विक्रम की छठी शताब्दी में विद्यमान दूसरे भद्रबाहु की रचना है, ऐसा मुनि श्री पुण्यविजयजी ने स्पष्ट रूप से सिद्ध कर दिया है । आचार्य भद्रबाहु प्रसिद्ध ज्योतिर्विद् वराहमिहिर के संसारी अवस्था के भ्राता थे । जैन परम्परा में वे नैमित्तिक और मन्त्रवेता के रूप में प्रसिद्ध हैं । वराहमिहिर ने पञ्चसिद्धान्तिका की प्रशस्ति में रचना-काल शक संवत् 427 अर्थात् विक्रम संवत् 562 बताया है । इसलिये हम ऐसा कह सकते हैं कि, प्राचार्य भद्रबाहु छठी शताब्दी में विद्यमान थे। 1. भद्रबाहु चाहे छठी शताब्दी में हुए हों, किन्तु प्रश्न यह है कि इनकी लिखी हुई नियुक्तियों में कोई प्राचीन भाग सम्मिलित है अथवा नहीं। श्री कुन्दकुन्द प्रादि के ग्रन्थों में बहुत-सी गाथाएँ नियुक्ति की हैं, भगवती आराधना और मूलाचार में भी हैं, अतः यह कसे कहा जा सकता है कि उपलब्ध नियुक्ति की समस्त गाथाएँ केवल छठी शताब्दी में ही लिखी गई हैं ? यदि पुरानी गाथाओं का समावेश कर नई कृति उपलब्ध रूप में उस समय बनी, तो समग्र नियुक्ति को छठी शताब्दी की ही कैसे माना जाए ? इसमें सन्देह नहीं कि हम यह निश्चय नहीं कर सकते कि पुरानी गाथाएँ कौन-कौन सी हैं और कितनी हैं ? फिर भी नियुक्ति की व्याख्यान-पद्धति अत्यन्त प्राचीन प्रतीत होती है । अनुयोगद्वार प्राचीन है, उसकी गाथाएं भी नियुक्ति में हैं। अतः यदि छठी शताब्दी के भद्रबाहु ने उपलब्ध रचना लिखी हो, तो भी यह मानना पड़ता है कि प्राचीनता की परम्परा निराधार नहीं । छठी शताब्दी के भद्रबाहु की कृति में से प्राचीन माने जाने वाले दिगम्बर ग्रन्थों में गाथाएं ली गईं, यह कल्पना कुछ अतिशयोक्ति पूर्ण मालूम होती है । यह अधिक संभव है कि समान पूर्व-परम्परा से दोनों में कुछ लिया गया हो, जैसे कि कर्मशास्त्र और जीवादि तत्वों की परिभाषा के विषय में हुअा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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