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________________ प्रस्तावना उचित समझा कि, ये पुराण भी मूलतः गणधर कृत हैं और हमें तो यह वस्तु परम्परा से प्राप्त हुई है, अतएव उसी के आधार से रचना करने में आई है।1 इस प्रकार गणधर-रचित न केवल अंग ग्रन्य ही अपितु अंग-बाह्य ग्रन्यों के साथ पुराण भी गणधर-कृत माने जाने लगे। इस प्रस्तुत चर्चा का उपयोगी निष्कर्ष यह है कि, प्राचीन मान्यता के अनुसार यह अावश्यक अंगबाह्य होने से गणधर-प्रणीत नहीं माना जाता था किन्तु बाद में प्राचार्यगण इसको भी गणधर-रचित मानने लगे। साथ ही यह भी कहना चाहिए कि, अंगबाह्य ग्रन्थों में से सर्वप्रथम यावश्यक को ही गणधर-रचित मानने की परम्परा प्रारम्भ हुई और उसके बाद दूसरे अंग-बाह्म ग्रन्थों को भी गणधर-कृत ग्रन्थों में सम्मिलित करने लगे।2।। अब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि ऐसा किसलिए करना पड़ा ? इसका सीधा समाधान तो यह हो सकता है कि, गणधर विशिष्ट ऋद्धि सम्पन्न माने जाते थे और उन्होंने भगवान् से सीधा उपदेश ग्रहण किया था। इसलिये दूसरों की अपेक्षा उनकी रचना की प्रामाणिकता बढ़ जाय यह स्वाभाविक है । इसलिये पीछे के प्राचार्यों ने प्रागम में समावेश हो जाय ऐसे समस्त साहित्य को गणधरों के नाम चढ़ाना उचित समझा, जिससे उसकी प्रामाणिकता में संदेह की गुजाइश ही न रहे । इस प्रकार क्रमशः आवश्यक से लेकर पुराणों तक समस्त अंगबाह्य साहित्य गणधर-कृत माना जाने लगा। ___ अंग-बाह्य में तो अनेक ग्रन्थ थे, तो भी अावश्यक को सर्वप्रथम गणधर-रचित मानने की परम्परा का प्रचलन इसलिये हुया कि प्रागम-ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर जहां-जहां भगवान् महावीर के साक्षात् शिष्यों के श्र तज्ञान-अभ्यास का निर्देश है वहां-वहां उन्होंने “सामायिकादि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया" ऐसे उल्लेख मिलते हैं। सामायिक, यह अावश्यक का प्रथम प्रकरण है। अध्ययन-क्रम में यदि उसका स्थान ग्यारह अंगों में भी पहिले है, तो आवश्यक को गणधर-कृत मानने में कोई विशेष आपत्ति नहीं होती । अतएव अंग-बाह्य में से आवश्यक को गणधरों की कति के रूप में सर्वप्रथम स्वीकार करें, यह स्वाभाविक है। और, आवश्यक की सब से प्राचीनतम व्याख्या अनुयोगद्वार सूत्र के उपक्रमद्वार में प्रमाणभेद की चर्चा करते हुए सूत्रागम आदि भेद किये हैं। आवश्यक सूत्र के सामायिक अध्ययन की ही चर्चा के प्रसंग में उक्त भेदों के करने से नियुक्तिकार, भाष्यकार और अन्य टीकाकारों ने सामायिक अध्ययन को सामने रखकर ही इन भेदों का प्रतिपादन किया हो, यह स्वाभाविक है । इसी कारण वे समस्त, सामायिक के अर्थकर्ता के रूप में तीर्थंकर को, सू कर्ता के रूप में गणधर को मानते हैं। किन्तु इतना ध्यान रखना चाहिए कि, अनुयोगद्वार सूत्र में पागम के सूत्रागम आदि भेद करते हुए भी प्रस्तुत सामायिक सूत्र में उसका उपसंहार 1. पद्मचरित 1, 41-42; महापुराण (ग्रादिपुराण) 1, 26; 1, 198-201 2. अंगबाह्य की जिन भिन्न-भिन्न व्याख्याओं का उल्लेख करने में आया है, उन कारणों पर विचार करने से एक कारण यह प्रतीत होता है कि, श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा और उनके साहित्य के सम्बन्ध में ज्यों-ज्यों मतभेद तीव्रतम होता गया त्यों-त्यों अंगबाह्य गणधरकृत मानने और मनवाने की प्रवृत्ति सबलता के साथ बढ़ती गई और पुराण जैसे ग्रन्थों को भी गणधर-कृत कृतियों में समावेश करते गए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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