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________________ 8 उसी रूप में हैं। 1 अनुयोगद्वार चूरिंग में इन गाथाओं पर विशेष विवरण के रूप में कुछ भी नहीं कहा गया है, किन्तु प्राचार्य हरिभद्र ने स्वरचित आवश्यक टीका में इनका विवेचन करने की प्रतिज्ञा की है ।" यह कहने की आवश्यकता नहीं कि, वह विवेचन आवश्यक नियुक्ति का ही अनुसरण करता है । मलधारी प्राचार्य हेमचन्द्र भी प्रावश्यक नियुक्ति का ही उपयोग करके इन गाथा की व्याख्या करते हैं । ऐसी अवस्था में यह मान सकते हैं कि, अनुयोग की उक्त गाथाओं का तात्पर्य यह है कि आवश्यक सूत्र गणधर प्रणीत है । यह परम्परा टीकाकारों को मान्य है तथा वह आवश्यक निर्युक्ति जितनी ही प्राचीन भी है । प्राचार्य भद्रबाहु स्वयं कहते हैं कि, मैं परम्परा के अनुसार सामायिक विषयक विवेचन करता हूं । इसलिये यह माना जा सकता है कि, प्राचार्य भद्रबाहु के भी पहले कभी यह मान्यता रही कि मात्र अंग ही नहीं अपितु अंग बाह्य ग्रन्थों में से आवश्यक सूत्र के अध्ययन भी गणधर -प्रणीत हैं । यह मान्यता केवल यहीं नहीं रुकी प्रपितु समस्त अंग बाह्य ग्रागम-ग्रन्थों को गणधर - रचित हैं, ऐसा माना जाने लगा । इसके प्रमाण दिगम्बर ग्रन्थों में भी प्राप्त होते हैं । इसी मान्यता का अनुसरण दिगम्बर प्राचार्य जिनसेन (वि० 840 ) स्वरचित हरिवंश पुराण में करते हैं । वे लिखते हैं कि, भगवान् महावीर ने पहले बारह अंगों का अर्थतः उपदेश दिया'; इसके पश्चात् गौतम गणधर ने उपांग सहित द्वादशांगी की रचना की । जैसा कि नन्दी सूत्र के मूल में एक स्थान पर द्वादशांगी को ही जिन प्रणीत कहा है तो भी चूर्णिकार अंगबाह्य को भी इसके साथ जोड़ने की सूचना देते हैं । चूर्णिकार संकेत करते हैं कि, उनके सन्मुख अंगबाह्य को भी गणधरकृत मानने की परम्परा प्रारम्भ हो गयी थी । इसीलिये वे दूसरे स्थान पर मूल में जहां अंग और अंग बाह्य दोनों की गणना है वहां वे दोनों के लिये लिखते हैं कि, वे दोनों अरिहंत के उपदेशानुसार हैं । प्राचार्य हरिभद्र को भी 'नन्दी' की टीका में चूर्णि की मान्यता का अनुसरण करना पड़ा, जब कि चूर्णिकार और हरिभद्र दोनों ' अथवा ' कहकर इस मान्यता के विरुद्ध जो मान्यता प्रचलित थी उसका भी संकेत करना नहीं भूलते कि, गणधर - रचित द्वादशांगी है और स्थविर-प्रणीत अंगबाह्य हैं । " अंग बाह्य आगम गणधर - कृत हैं यह मान्यता यहीं नहीं अटकी, बल्कि जैन पुराणकारों ने स्वयं के पुराणों की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए उपोद्घात में स्पष्ट करना 1. अनुयोगद्वार सूत्र 155 2. अनुयोगद्वारवृत्ति हरिभद्रकृत पृ० 122 3. पृ० 258 - 259 । 4. हरिवंश पुराण 2,92-105 5. हरिवंश पुराण 2,111 6. 7. 8. गणधरवाद To 38 पृ० 49 पृ० 82, 89-90 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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