SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना मान्यता में शिथिलता याने लग गई थी । यही कारण है कि, अंगबाह्य का भेद उमास्वाति द्वारा प्रतिपादित एक प्रकार का न होकर, तीन प्रकार का बताया गया है । नन्दी सूत्र की चूर्णि में तथा प्राचार्य हरिभद्र रचित नन्दी सूत्र की टीका में अंगबाह्य की रचना के विषय में दो धारायें ( मत) प्राप्त होते हैं उसमें भी एक मत तो आचार्य उमास्वाति स्वीकृत मत ही है कि, जो गणधर रचित हैं वे अंग हैं और स्थविर-प्रणीत होते हैं वे अंग बाह्य हैं | इससे यह भी सिद्ध होता है कि जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे 'अंगबाह्य गणधर कृत हैं' ऐसी मान्यता की तरफ आकर्षित होते हुए भी प्राचार्य गण प्राचीन मान्यता को स्मरण में रखते हुए, उल्लेख करते रहे । जो कुछ भी हो, किन्तु प्राचीन मान्यता से यह प्रतिपादित होता है कि, श्रावश्यक सूत्र अंग बाह्य होने से इसके कर्ता गणधर नहीं अपितु कोई स्थविर थे । 7 यह कहना कठिन है कि इस मान्यता के विरुद्ध दूसरी मान्यता कब से प्रारंभ हुई ? तो भी इतना तो निश्चित है कि, यह आवश्यक सूत्र भी गणधर प्रणीत है । इस प्रकार की मान्यता का सर्वप्रथम स्पष्ट प्रतिपादन श्रावश्यक नियुक्ति में दिखाई पड़ता है । आवश्यक सूत्र के सामायिकाध्ययन की उपोद्घात-निर्युक्ति में उद्देशादि अनेक द्वारों में जो प्रश्न उठाये गये हैं उनका नियुक्तिकार ने क्रमशः उत्तर दिया है । उसका निरन्तर स्वाध्याय करने वाले की दृष्टि में यह तथ्य स्पष्ट हुए बिना नहीं रहता कि, नियुक्तिकार बारम्बार यही तथ्य सिद्ध करना चाहते हैं कि, सामायिकादि श्रध्ययनों की रचना भगवान् के उपदेश के आधार पर गणधरों ने की है । इसी बात का समर्थन निर्युक्ति का भाष्य करते हुए विशेषावश्यक भाष्यकार जिनभद्र ने किया है 14 नियुक्ति और भाष्य के टीकाकार आचार्य हरिभद्र, मलयगिरि, मलधारी हेमचन्द्र भी उस उस प्रसंग पर इसी बात का अनुसरण करें, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं । प्राचार्य भद्रबाहु ने इस बात को भी स्पष्ट किया है कि, 'इसमें मैं जो कुछ कह रहा हूँ वह परम्परा से प्राप्त हुआ है। इस परम्परा का अनुसन्धान करें तो हमें यह बात श्रावश्यक की प्राचीनतम व्याख्या अनुयोगद्वार में मिलती है । वहां भी आवश्यक के अध्ययनों के विषय में प्रावश्यक नियुक्ति में श्रागत 'उद्देशादि' प्रदर्शक गाथायें 1. नन्दी चूर्णी पृ० 47 पृ० 90 2. 3. 4. 5. श्राव० नि० गा० 140-141 आव० नि० की विशेषरूप से उसके भाष्यादि टीकायों के साथ निम्नांकित गाथाएं द्रष्टव्य हैं :-- गा० 80,90, 270, 734, 735, 742, 745, 750; विशेषा० 948-49, 1533, 1545-1548, 2082, 2083, 973-974, 1484-1485, 2089 I आव० नि० 87 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy