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श्रावश्यक के प्रणेता के सम्बन्ध में दो मान्यतायें :--
अब इस प्रश्न पर विचार करें कि, किन-किन ग्रन्थों की रचना गणधरों ने की है ? और उसमें आवश्यक सूत्र का समावेश होता है या नहीं ? इस प्रश्न पर आगम ग्रन्थ एकमत हों, ऐसा नहीं दिखता |
अनुयोगद्वार सूत्र में ग्रागमों के सम्बन्ध में प्रतिपादन किया गया है । उसमें तीर्थंकरों को आचारांग से लेकर दृष्टिवाद पर्यन्त बारह अंगों के प्रणेता कहा गया है ।" इसका अर्थ इस प्रकार कर सकते हैं कि, तीर्थंकरों के उपदेश के ग्राधार पर गणधरों ने द्वादशांगी की रचना की । इसी बात का नन्दी सूत्र में भी सम्यक् श्रुत का प्रतिपादन करते हुए अनुयोगद्वार के शब्दों में वर्णन किया गया है । षट्खण्डागम की धवला टीका श्रौर कषायपाहुड की जयधवला टीका में भी गणधर इन्द्रभूति को द्वादशांग और चौदह पूर्व के सूत्रकर्ता के रूप में कहा गया है। 5
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इस मान्यता का समर्थन अन्य ग्रन्थों में भी मिलता है। प्राचार्य उमास्वाति ने तत्वार्थसूत्र भाष्य में प्रागमों में अंग और अंग - बाह्य का भेद किन कारणों से किया गया है ? इसका समाधान करते हुए कहा है कि, जो गणधर - कृत हैं वे अंग हैं और जो स्थविर रचित हैं वे अंगवाह्य' हैं । बृहत्कल्पभाष्य' और विशेषावश्यक भाष्य में अंग और अंगबाह्य के तीन प्रकार से भेद बताये गये हैं । उनमें से एक प्रकार प्राचार्य उमास्वाति द्वारा निर्दिष्ट मत का अनुसरण करता है। इसके साथ यह भी ज्ञात होता है कि, उनके समय में आचार्य उमास्वाति निर्दिष्ट
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अत्यं भासइ रहा सुतं गंयंति गहरा निउ । सासरणस्स हिट्ठाए तो सुत्तं पवत्तई 11921
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गणधरवाद
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4. चौदह पूर्वो का समावेश बारहवें अंग में होने से धवला और जयधवला मत पूर्वोक्त मत
इस वस्तु का समर्थन भगवती ग्राराधना गा० 34, विजयोदया पृ० 125, षट्खण्डागम धवला टीका ( पृ० 60 ) और कषायपाहुड की जयधवला टीका ( पृ० 84 ) में तथा महापुराण (प्रादि पुराण) 1,202; तिलोयपण्णत्ति 1,33; 1,80; तत्त्वार्थ भाष्य-सिद्धसेनवृत्ति 1,20 में भी है ।
अनुयोगद्वार सूत्र 147 पृo 218
नन्दी सूत्र 40
से भिन्न नहीं हैं ।
खण्डागम धवला टीका भाग 1 पृ० 65 और कषायपाहुड - जयधवला टीका भाग i go 84
तत्वार्थ भाष्य 1, 20
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बृहत्कल्पभाष्य गा० 144
विशेषा० भा० गा० 550; यहां यह अंकन करने योग्य है कि, बृहत्कल्पभाष्य और विशेषा० भा० की गाथा में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है ।
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