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प्रस्तावना
भगवान् का यह कथन - - इन्हीं बातों का समावेश है । गणधरों के मन में वेद के किन वाक्यों के आधार पर उस विषय में किस प्रकार संशय उत्पन्न हुआ ? उस संशय के संबंध में उनकी क्या युक्तियां थीं ? भगवान् ने उन का क्या उत्तर दिया ? भगवान् ने वेद-पदों का क्या अर्थ किया ? इत्यादि बातें ग्राव० नि० में नहीं हैं । इन सब विषयों की पूर्ति कर और पूर्वोतर पक्ष की स्थापना करके प्राचार्य जिनभद्र ने अपने भाष्य में विस्तृत 'गणधरवाद' की रचना की है । सारांश यह है कि ग्राव० नि० में प्रस्तुत बाद के सम्बन्ध में कोई भी विशेष उल्लेख दृग्गोचर नहीं होता । वहां केवल वाद का निर्देश है । इस निर्देश के आधार पर प्राचार्य जिनभद्र ने गणधरवाद की ऐसी रचना की है जो एक विद्वान् टीकाकार के लिए शोभास्पद है ।
इस प्रकार प्रस्तुत अनुवाद-ग्रन्थ ( गणधरवाद) के साथ आवश्यक सूत्र, भद्रबाहु कृत उपोद्घात-निर्युक्ति, जिनभद्र रचित विशेषावश्यक भाष्य और हेमचन्द्रसूरि मलधारी प्रणीत वृहद्वृत्ति इतने ग्रन्थों का सम्बन्ध है । अतएव इस प्रस्तावना में उन उन ग्रन्थों के प्रणेता आचार्यों का परिचय देना उचित समझता हूँ और अन्त में गणधरों का सामान्य परिचय देकर, प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रदेशरूप प्रात्मवाद, कर्मवाद और उसके विरोधी वादों-अनात्मवाद एवं ग्रकर्मवादविषयों का ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक दृष्टि से निरूपण किया है। इससे गणधरवाद से सम्बन्धित दार्शनिक भूमिका क्या है ? वह पाठकों के ध्यान में आ जावेगी ।
2. आवश्यक के सूत्र कर्त्ता कौन ?
जैन आगम शास्त्र के दो भेद किये जाते हैं :--- प्रर्थागम और सूत्रागम अर्थात् शब्दागम । अनुयोगद्वार में कहा गया है कि, तीर्थंकर श्रागम का उपदेश करते हैं इसलिये वे स्वयं अर्थागम के कर्त्ता हैं । वह ग्रथगम गणधरों को तीर्थंकर से साक्षात् (प्रत्यक्ष ) में मिलने के कारण गणधरों की अपेक्षा से वह अनन्तरागम है । किन्तु उस अर्थागम के आधार से गणधर सूत्रों की रचना करते हैं इसलिये सूत्रागम या शब्दागम के प्रणेता गणधर ही कहे जाते हैं । गणधरों के प्रत्यक्ष शिष्यों की अपेक्षा से अर्थागम परम्परागम कहलाता है और उनको गणधरों के पास प्रत्यक्ष में मिलने के कारण उनकी अपेक्षा से वह सूत्रागम अनन्तरागम कहा जाता है । गणधरों के प्रशिष्यों की अपेक्षा से दोनों प्रकार के ग्रागम परम्परागम कहलाते हैं ।'
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इस आधार से यह निष्कर्ष निकलता है कि, आगम के अर्थ का उपदेश तीर्थंकरों ने दिया था और उसको ग्रन्थबद्ध करने का श्रेय गणधरों को दिया जाता है । इसलिये जहाँ-जहाँ ग्रागम को तीर्थंकर प्रणीत कहने में प्राता है वहां उसका इतना ही अर्थ समझना चाहिए कि, इस ग्रागम में जिस बात का प्रतिपादन हुआ है उसका मूल तीर्थंकर के उपदेश में है । उसका शब्दार्थ यह नहीं होता है कि, ये ग्रन्थ भी तीर्थंकरों ने बनाये हैं । प्राचार्य भद्रबाहु ने भी आवश्यक नियुक्ति में इसी मत का समर्थन किया है।
1. ग्रनुयोगद्वार सू. 147, पृ. 219; विशेषावश्यक भाष्य 948-949
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