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________________ गणधरवाद रचाया था। अतः दूर-दूर के शहरों से महान् विद्वान् पण्डित उसमें भाग लेने आए थे । इसी यज्ञ-मण्डप के उत्तर में देवगण भगवान् महावीर के समवसरण में उत्सव मना रहे थे ।। अत. यज्ञ में उपस्थित लोगों ने अनुमान किया कि उनके यज्ञानुष्ठान से सन्तुष्ट होकर देव स्वयं यज्ञवाटिका में आ रहे हैं, किन्तु जब उन्होंने देखा कि वे देव यज्ञवाटिका की ओर न पाकर किसी दूसरे स्थान की तरफ उत्तर में जा रहे हैं, तब उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही। अन्य लोगों ने भी जब यह समाचार सुनाया कि, देवता स्वयं आकर सर्वज्ञ भगवान् महावीर की महिमा में वृद्धि कर रहे हैं तब अभिमानी पण्डित इन्द्रभूति ने सोचा कि, मेरे अतिरिक्त अन्य कौन सर्वज्ञ हो सकता है ? अतः वह स्वयं भगवान् के समवसरण में उपस्थित हया । उसे आया हुआ जानकर भगवान् महावीर ने उसे उसके नाम और गोत्र से बुलाया । उन्होंने उसे यह भी कहा कि, तुम्हारे मन में जीव के अस्तित्व के विषय में सन्देह है। साथ ही भगवान महावीर ने बताया कि, वस्तुतः तुम वेद के पदों का अर्थ नहीं जानते, इसीलिए तुम्हें ऐसा सन्देह है । मैं तुम्हें उन पदों का सच्चा अर्थं बताऊंगा । फलस्वरूप जब इन्द्रभूति के संशय का समाधान हो गया तब उसने अपने 500 शिप्यों के साथ भगवान् महावीर के पास दीक्षा ले ली। यही इन्द्रभूति भगवान् के मुख्य गणधर बने । उसके दीक्षित होने का समाचार जानकर अग्निभूति आदि अन्य ब्राह्मण पण्डित भी क्रमशः भगवान् के पास आए, उन्हें भी भगवान् ने उसी प्रकार उनके गोत्र सहित नाम से पुकारा और उन के मन में विद्यमान भिन्न-भिन्न शंकाएं भी बतादीं । समाधान होने पर वे भी अपने-अपने शिष्य समुदायों सहित दीक्षित हो गए और गणधर पद को प्राप्त किया। प्रथम विद्वान् इन्द्रभूति के मन में वर्तमान संशय के कथन से लेकर अंतिम ग्याहरवें विद्वान् प्रभास की दीक्षा विधि तक के प्रसंग की आवश्यक नि० की 42 गाथाओं (600-641) की व्याख्या करते हुए प्राचार्य जिनभद्र ने 'गणधरवाद' की रचना की है । केवल इन 42 गाथाओं की व्याख्या के रूप में उन्होंने 11 गणधरों के वाद सम्बन्धी जिन गाथाओं को रचना की है, उनकी संख्या इस प्रकार है :-1-56; -35; 3-38; 4-79; 5-28; 6-58; 7-17; 8-16; 9-40; 10-19; 11-49. प्राव नि० की उक्त 42 गाथानों में ग्यारह गणधरों के नाम, शिष्य संख्या, संशय का विषय, उनका वेद-पदों के अर्थ का अज्ञान, और मैं तुम्हें वेद-पदों का सच्चा अर्थ बताता हूं, 1. प्राव० नि० 541-42, 592 2. आव० नि० 591 3. आव० नि० 598 4. आव० नि० 598 5. आव० नि0 600 प्राव नि० 601 प्राव०नि० 602-641 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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