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________________ वृद्धि पत्र (1) प्राचार्य जिनभद्र की कृतियों में एक चूमि की वृद्धि करनी चाहिये / यह चूर्णि अनुयोगद्वार के शरीर-पद पर है। इसका अक्षरशः उद्धरण जिनदास की चूणि तथा हरिभद्र की वृत्ति में हुआ है। (2) विशेषावश्यक भाष्य की टीकानों में मलयगिरिकृत टीका की भी गणना करनी चाहिये / इसका उल्लेख स्वयं मलयगिरि ने प्रज्ञापना की टीका में किया है / सम्भव है इस टीका की प्रति मिल जाए / (3) सामान्यत: नियुक्तिकार के रूप में ये भद्रबाहु ज्ञात हैं, उनका समय मुनि श्री पुण्यविजय जी के लेख के आधार पर प्रस्तावना में प्रथम सूचित किया जा चुका है, किन्तु नियुक्ति नाम के व्याख्या ग्रन्थों की रचना बहुत पहले से चली आ रही है / इसके प्रमाण के लिए यहाँ श्री अगस्त्यसिंह की चूणि का निर्देश किया जा सकता है। इस चूणि का अब तक नाम भी ज्ञात न था, किन्तु जैसलमेर के भण्डार से यह दो वर्ष पूर्व उक्त मुनिश्री को मिली है / यह चूणि दशवकालिक सूत्र पर है / इसमें दशवकालिक पर लिखी गई एक वृत्ति का भी निर्देश है / इस चूणि में व्याख्यात की गई गाथाएँ जिनदास की चूणि में भी उसी रूप में हैं / हरिभद्रीय वृत्तियों में इन गाथाओं के अतिरिक्त अन्य नियुक्ति गाथाएं भी हैं। अगस्त्यसिंह का समय माथुरी वाचना तथा वालभी वाचना के अन्तरकाल में कहीं है। अगस्त्यसिंह द्वारा स्वीकृत किया गया सूत्र-पाठ श्री देवद्धिगणि द्वारा स्थिर किए गए सूत्र-पाठ से भिन्न ही है, इससे यह कल्पना की जा सकती है कि वह सूत्र-पाठ माथुरी या नागार्जुनीय वाचना सम्मत होगा। प्रतः हम कह सकते हैं कि अगस्त्यसिंह की चूणि में वर्णित नियुक्ति भाग प्राचीन है। हाँ, नवीन रचित नियुक्ति में प्राचीन नियुक्ति समाविष्ट हो जाती है। इसलिए जैसे चूणि ग्रन्थों की रचनापरम्परा जिनदास से पहले से चली आ रही है, उसी प्रकार नियुक्ति के विषय में भी यही बात है / यह देख कर यह विचार भी उत्पन्न होता है कि चतुर्दश पूर्वी भद्रबाहु द्वारा नियुक्तियों की रचना की परम्परा में कुछ तथ्य तो अवश्य होना चाहिए / (4) जीतकल्प की चूणि के कर्ता के रूप में बृहत्क्षेत्रसमास वृत्ति के रचयिता विक्रम की 12वीं शताब्दी में विद्यमान सिद्धसेनसूरि का उल्लेख सम्भावना के रूप में प्रस्तावना पृ० 46 पर किया गया है, किन्तु जीत कल्प एक आगमिक ग्रन्थ है। अतः प्रतीत होता है कि उसकी चूणि का कर्ता कोई प्रागमिक होना चाहिए। ऐसे एक आगमिक सिद्धसेन क्षमाश्रमण का निर्देश पंचकल्प चूणि तथा हरिभद्रीय वृत्ति में उपलब्ध होता है। सम्भव है कि जीत कल्प चूणि के कर्ता यही क्षमाश्रमण सिद्धसेन हों / यह संकेत एक विकल्प के रूप में है / (5) क्षेत्रसमास वृत्ति के कर्ता के रूप में हरिभद्र का निर्देश तथ! उनका समय 1185 प्रस्तावना में सूचित किया गया है, किन्तु जैसलमेर की ताडात्रोय प्रति में जो अब तक प्रान्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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