________________ 210 गणधरवाद नागसेन ने मिलिन्द प्रश्न (पृ० 72) में निर्वाण को निरोध रूप कहा है। फिर भी उन्होंने उसे सर्वथा अभाव रूप नहीं किन्तु 'अस्तिधर्म' कहा है (पृ० 265) / यह भी कहा है कि, निर्वाण सुख है (पृ० 72) / यही नहीं, उसे 'एकान्त सुख' कहा गया है (पृ. 366) / उसमें दुःख का लेश भी नहीं है। नागसेन ने यह स्वीकार किया है कि, अस्ति होते हुए भी निर्वाण का रूप, संस्थान, वय, प्रमाण यह सब कुछ नहीं बताया जा सकता (पृ. 309) / पृ० 160 पं० 11. मोक्ष-यह पक्ष जैनों को मान्य है। पृ० 161 पं० 28. ज्यापक-जिसका विस्तार अधिक हो उसे व्यापक कहते हैं तथा जिसका विस्तार न्यून हो उसे व्याप्य कहते हैं। जैसे कि वृक्षत्व और पाम्रत्व / वृक्षत्व विस्तृत है, व्यापक है और आम्रत्व बृक्षत्व से व्याप्त है। ऐसी स्थिति में जहाँ वृक्षत्व न हो वहाँ आम्रत्व भी नहीं होता, किन्तु जहाँ आम्रत्व हो वहाँ वृक्षत्व अवश्य होगा। अतः अाम्रत्व को हेतु बना कर वृक्षत्व को साध्य बनाया जा सकता है। किन्तु इससे विपरीत साध्य साधन भाव नहीं बन सकता। पृ. 162 पं० 9. प्रध्वंसाभाव-प्रध्वंस अर्थात् विनाश / घट का विनाश होने पर उसका जो अभाव हुआ वह प्रध्वंसाभाव कहलाता है / अर्थात् ठीकरियाँ घट का प्रध्वंसाभाव हैं। पृ० 165 पं० 24. प्रात्मा की-यह शंका नैयायिक-वैशेषिक मत के अनुसार है / उनके मन में मोक्ष में आत्मा में सुख या ज्ञान नहीं है। पृ० 167 पं० 25. स्वतन्त्र हेतु-जिस साधन या हेतु द्वारा स्वेष्ट वस्तु की सिद्धि की जाए वह स्वतन्त्र-साधन है, परन्तु जिस हेतु द्वारा स्वेष्ट वस्तु की सिद्धि नहीं किन्तु परवादी के अनिष्ट पर केवल आपत्ति की जाए वह प्रसंग-हेतु कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org