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________________ टिप्पणियां 209 पृ. 158 पं० 4. सोने के घड़े को-इसके साथ प्रा० समन्तभद्र की निम्नकारिका तुलनीय है 'घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् / शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् / / प्राप्तमीमांसा 59. (11) पृ० 159 पं० 2. निर्वाण-चर्चा-निर्वाण के अस्तित्व की शंका का प्राधार मीमांसादर्शन की यह मान्यता है कि वैदिक कर्मकाण्ड जीवन-पर्यन्त करना आवश्यक है। इस प्रकार की शंका न्याय-दर्शन में भी पूर्वपक्ष के रूप में उपलब्ध होती है-न्यायसूत्र 4.1.59 का भाष्य तथा अन्य टीकाएं देखें। पृ. 160 पं० 3. दीप-निर्वाण-सौन्दरनन्द के श्लोक से मिलती हुई गाथा माध्यमिक वृत्ति में उद्धृत है / वह यह है 'अथ पंडितु कश्चि मार्गते कुतोऽयम्मागतु कुत्र माति वा / विदिशो दिश सवि मार्गतो नागतिर्नास्य गतिश्च लभ्यति // मा०वृ०पृ० 216. चतुःशतक की वृत्ति (पृ. 59) में कहा गया है कि, निर्वाण यह नाममात्र है, प्रतिज्ञामात्र है, व्यवहार मात्र है, संवृत्ति मात्र है / और चतुःशतक (22! ) में तो कहा है _ 'स्कन्धाः सन्ति न निर्वाणे पुद्गलस्य न सम्भवः / यत्र दृष्टं न निर्वाणं निर्वाणं तत्र किं भवेत् / / ' बोधिचर्यावतार पंजिका में लिखा है-निर्वाणं उपशमः पुनरनुत्पत्तिधर्मकतया आत्यन्तिकसमुच्छेद इत्यर्थः (पृ० 350) / यह भी दीप-निर्वाण पक्ष का समर्थन है / पुनश्च बोधिचर्यावतार (9.35) में जो यह कहा है कि 'यदा न भावो नाभावो मतेः संतिष्ठते पुरः / तदान्यगत्यभावेन निरालम्बा प्रशाम्यति / / वह भी दीप-निर्वाण पक्ष का ही समर्थन है / उसकी व्याख्या में लिखा है 'बुद्धिः प्रशाम्यति उपशाम्यति सर्वविकल्पोपशमात् निरिन्धनवह्निवत् निर्वृति(निवृत्ति ?) मुपयातीत्यर्थ / ' पृ० 418. फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि, शून्यवादी के मत में निर्वाण सर्वथा प्रभाव रूप है, क्योंकि वह परमार्थ तत्व तो है ही, जिसका वर्णन बोधिचर्यावतार पंजिका में इस प्रकार है “बोधिः बुद्धत्वमेकानेकस्वभावविविक्त अनुत्पन्नानिरुद्धं अनुच्छेदमशाश्वत सर्वप्रपञ्चविनिमुक्त आकाशप्रतिसमं धर्मकायाख्यं परमार्थतत्वमुच्यते / एतदेव च प्रज्ञापारमिता-शून्यता-तथता-भूतकोटिधर्मधात्वादिशब्देन संतिमुपादाय अभिधीयते।” पृ० 421. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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