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________________ 208 गणधरवाद औदारिक शरीर योग्य वर्गणा के पश्चात् अनन्त ऐसी वर्गणाएं हैं जो वैक्रिय शरीर के अयोग्य हैं तथा उनके बाद की वर्गणाएं वैक्रिय शरीर के योग्य हैं। इस प्रकार बीच वाली अग्रहण योग्य वर्गणाओं को निकाल कर जो ग्रहण योग्य वर्गणाएं हैं वे ये हैं---ौदारिक वर्गणा, वैक्रिय वर्गणा, आहार वर्गणा, तेजस वर्गणा, भाषा वर्गणा, श्वासोच्छ्वास वर्गणा, मनो वर्गणा तथा कर्म वर्गणा। इससे ज्ञात होता है कि कर्म वर्गणा सबसे सूक्ष्म परिणामी परमाणुओं की बनी हुई होती है, अतः वह सर्वाधिक सूक्ष्म है, किन्तु उसके स्कन्धों में परमाणुओं की संख्या सर्वाधिक है। इसके विशेष विवरण के लिए देखें-विशेषा० गाथा 635-639 तथा पंचम कर्म ग्रन्थ गाथा 75-76. पृ० 146 पं० 13. उपशम श्रेणी-जिस श्रणी में मोहनीय कर्म का भय नहीं किन्तु उपशम किया जाता है उसे उपशम श्रेणी कहते हैं। उसका क्रम यह है-सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय का उपशम होता है। तत्पश्चात् मिथ्यात्व, सम्यङ -मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व का; फिर नपुसक वेद का; फिर स्त्री वेद का; तदनन्तर हास्य, रति, परति, शोक, भय व जुगुप्सा का; फिर पुरुष वेद का; फिर अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण क्रोध का; तदुपरान्त संज्वलन क्रोध का; फिर अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण मान का; फिर संज्वलन मान का; बाद में अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण माया का; फिर संज्वलन माया का; तत्पश्चात् अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण लोभ का; तथा अन्त में संज्वलन लोभ का उपशम होता है। पृ० 147 पं० 4, प्रकृति-कर्म के स्वभाव को प्रकृति कहते हैं, जैसे कि ज्ञानावरण कर्म का स्वभाव है कि वह ज्ञान का आवरण करता है। पृ8 147 पं० 5. स्थिति-कर्म का आत्मा के साथ जितने समय तक सम्बन्ध बना रहता है उसे उसकी स्थिति कहते हैं / पृ० 147 पं० 5. अनुभाग-कर्म की तीव्र-मन्द भाव द्वारा विपाक देने की शक्ति को को अनुभाग कहते हैं / पृ. 147 पं० 5. प्रदेश ----कर्म के जितने परमाणु प्रात्मा के साथ सम्बद्ध हों वे उसका प्रदेश कहलाते हैं। पृ० 147 पं० 8. रसाविभाग-कर्म के विपाक की मन्दतम मात्रा को रसाविभाग कहते हैं / यह मात्रा कर्म के जो उत्तरोतर मन्दतर प्रादि प्रकार हैं उन्हें मापने में मापदण्ड का काम देती है। (10) पृ० 152 पं० 2. परलोक-चर्चा-इस वाद में कोई नई बात नहीं है, अधिकतर पूर्वकथित की पुनरावृत्ति है / For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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