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________________ टिप्पणियाँ 207 अथवा मिश्र मोहनीय --जिसके उदय के समय यथार्थ श्रद्धा अथवा अश्रद्धा न हो किन्तु डोलायमान स्थिति रहे, 3. सम्यक्त्व मोहनीय ----जिसका उदय यथार्थ श्रद्धा का निमित्त तो बने किन्तु औपशमिक अथवा क्षायिक प्रकार की श्रद्धा न होने दे / ___ पृ० 145 पं० 9. संक्रम-एक कर्म प्रकृति के परमाणु अन्य सजातीय कमप्रकृति रूप में परिणत हो जाए, इसे संक्रम या संक्रमण कहते हैं। जैसे कि सुख वेदनीय कर्म परमाणु दुःख वेदनीय रूप हो जाए तो उसे संक्रमण कहेंगे / पृ० 145 पं० 20. ध्र वबंधिनी --जो कर्म प्रकृति अपने बन्ध का कारण विद्यमान होने पर अवश्यमेव बन्ध को प्राप्त हो, उसे ध्र बबंधिनी कहते हैं। पृ० / 45 पं० 22. अध्र वबंधिनी ---जो कर्म प्रकृति अपने बन्ध का कारण विद्यमा। होने पर बद्ध भी हो सके और बद्ध न भी हो, उसे प्रव्र वबन्धिली कहते हैं / पृ० 146 पं० 2 तेल लगा कर-यही दष्टान्त भगवती सूत्र में भी दिया हैभगवती सर पृ० 436, शतक 1, उद्देश 6. पृ० 146 पं० 4. कर्मवर्गणा-समान जातीय पुद्गलों के समुदाय को 'वर्गणा' कहते हैं। जैसे कि स्वतन्त्र एक-एक पृथक् परमाणु जो संसार में हैं वे प्रथम वर्गणा कहलाते हैं। इसी प्रकार दो परमाणुगों के मिलने से जो स्कन्ध बनते हैं उनकी दूसरी वर्गणा, तीन परमाणुओं के मिलन से जितने स्कन्ध बनते हैं उन सबकी तीसरी वर्गणा, चार परमाणुओं से बने हुए स्कन्धों की चौथी वर्गणा, इस प्रकार एकाधिक परमाणु वाले स्कन्धों की गिनती करते-करते अन्तिम संख्या तक की वर्गणायों की गिनती कर लेनी चाहिए / ये सब संख्यात वर्गणाएँ हैं / तत्पश्चात सख्यात अणु वाली वर्गणात्रों की गिनती करें तो वे असंख्यात वर्गणाएं होंगी। तदनन्तर अनन्त अणु वाली वर्गणाएँ अनन्त होंगी तथा अनन्तानन्त अणुओं द्वारा निर्मित स्कन्धों की वर्गणाएँ अनन्तानन्त होंगी / उसमें अब यह विचार करना शेष है कि, जीव कौनसी वर्गणाओं को ग्रहण कर सकते हैं / सभी वर्गणाओं में सबसे स्थूल वर्गणा औदारिक वर्गणा कहलाती है, जिसे ग्रहण कर जीव अपने औदारिक शरीर की रचना करता है। यह वर्गणा यद्यपि स्थल कही जाती है तथापि इस वर्गणा में समाविष्ट स्कन्ध अन्य वैक्रिय शरीर योग्य वर्गणा की अपेक्षा अल्प परमाणुओं से निर्मित होते हैं। अर्थात् जीव द्वारा ग्रहण योग्य न्यूनतम परमाणुनों वाले स्कन्धों की जो वर्गणा है, वह औदारिक वर्गणा है / उसके स्कन्धों में अनन्तानन्त परमाणुगों के बने हुए स्कन्ध भी होते हैं, किन्तु अजन्तानन्न परमाणुओं से बने हुए स्कन्धों वाली वर्गणाएं तो अन तानन्त भेद वानी हैं। उनमें से कौनसी वर्गणा औदारिक योग्य है, इसका स्पष्टीकरण शास्त्र में किया गया है और कहा गया है कि, जिस वर्गणा के स्कन्ध अभव्य जीवों की राशि से अनन्तगुणे तथा सिद्ध जीवों की राशि के अनन्तवें भाग जितने परमाणुगों से बने हुए हों वह प्रौदारिक योग्य वर्गणा हैं / यह संख्या भी न्यूनतम परमाणुओं के स्कन्धों से निर्मित औदारिक वर्गणा की समझनी चाहिए। उसमें एक-एक परमाणु बढ़ा कर बन हए स्कन्धों की जो अनेक वर्गणाएँ औदारिक शरीर के योग्य हैं, उनकी संख्या अनन्त है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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