SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 389
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 206 गणधरवाद पृ० 134 पं० 16. पुण्य-पाप सम्बन्धी मतभेद---जिस प्रकार के मतभेद प्रस्तुत में वर्णित किए गए हैं उनमें स्वभाववाद तथा पाप-पुण्य को पृथक् मानने वाले तो सर्वविदित हैं, किन्तु केवल पुण्य अथवा केवल पाप या पुण्य-पाप का संकर (मिश्रण) ये पक्ष किसके हैं, यह बात ज्ञात नहीं हो सकी / यहाँ पुण्य-पाप विषयक जो विकल्प हैं, वे वस्तुतः किसी की मान्यता रूप हैं या केवल विकल्प हैं, इस बात का परिचय प्राप्त करने का भी कोई साधन उपलब्ध नहीं हुआ / केवल इनसे एकांश में मिलती हुई वस्तु सांख्य-कारिका की व्याख्या में सत्वादि गुणों के वर्णन के प्रसंग में दृग्गोचर होती है, उसका निर्देश करना आवश्यक है / माठर ने पूर्वपक्ष रखा है कि, सत्व, रज, तम इन तीनों को पृथक् क्यों माना जाए ? केवल एक ही गुण क्यों न स्वीकार किया जाए ? सां० का० 13 का उत्थान देखें। पृ० 143 पं० 25. योग-मन, वचन, काय के व्यापार को 'योग' कहते हैं / . पृ० 143 पं० 27. मिथ्यात्व-प्रतत्व को तत्व समझना अथवा वस्तु का यथार्थ श्रद्धान न करना 'मिथ्यात्व' है। पृ० 143 पं० 27. अविरति-पाप-प्रवृत्ति मे निवृत्त न होना 'अविरति' है। अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य (मिथ्याचार) व परिग्रह में प्रवृत्ति करना / पृ० 143 पं० 27. प्रमाद-ग्रात्म-विस्मरण 'प्रमाद' है। अर्थात् कर्त्तव्य अकर्तव्य का ज्ञान न रखना। पृ० 143 पं० 28. कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों को कषाय कहते हैं। पृ० 144 पं० 10. अध्यवसाय-यात्मा के शुभाशुभ भाव(परिणाम) 'अध्यवसाय' है। पृ० 144 पं० 22. लेश्या-कषायानुरंजित योग के परिणाम को 'लेश्या' कहते हैं। उसके छह भेद हैं-- कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म, शुक्ल / ये उत्तरोत्तर विशुद्ध हैं / प्रथम तीन अशुभ तथा शेष तीन शुभ- लेश्याएँ हैं / 10 144 पं० 22. ध्यान-चार हैं-यातं, रौद्र, धर्म तथा शुक्ल / प्रथम दो अशुभ तथा अन्तिम दो शुभ हैं। अप्रिय वस्तु की प्राप्ति होने पर वह कैसे दूर हो इसकी सतत चिन्ता करना, दुःख दूर करने की चिन्ता करना, प्रिय वस्तु की प्राप्ति होने पर उसे स्थिर रखने की चिन्ता करना, अप्राप्त की प्राप्ति के लिए संकल्प करना प्रार्तध्यान है। हिंसा, असत्य, चोरी तथा विषय संरक्षण के लिए सतत चिन्ता करना रौद्र ध्यान है। वीतराग की आज्ञा के विषय में विचार, दोषों के स्वरूप तथा उन से मुक्त होने के उपाय का विचार, कर्म विपाक की विचारणा, तथा लोकस्वरूप का विचार धर्म ध्यान है। पूर्वश्र त के ज्ञाता तथा केवली का ध्यान शुक्ल ध्यान कहलाता है / इसका विशेष विवरण तत्वार्थ सूत्र 9.27 से देखें। प्र० 144 पं० 31. सम्यङ् मिथ्यात्व-दर्शन मोहनीय कर्म के तीन भेद हैं1. मिथ्यात्व मोहनीय-जिसके उदय से तत्वों की यथार्थ श्रद्धा न हो, 2. सम्यङ मिथ्यात्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy