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________________ 204 गणधरवाद वेदान्त मत में भी मोक्ष अथवा निर्वाण उत्पन्न किए जाने वाला नहीं है, किन्तु उस का साक्षात्कार किया जाना है / आत्मा के शुद्धस्वरूप सम्बन्धी अज्ञान अथवा मिथ्याज्ञान को दूर कर उसके शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार करना ही मोक्ष है। अतः वेदान्त मत में भी निर्वाण के कारणों की जो चर्चा है वह ज्ञापक कारणों की है, उत्पादक कारणों की नहीं है / अन्य दर्शनों को भी यही मान्यता स्वीकृत है, क्योंकि यह बात सर्वसम्मत है कि प्रात्मा का शुद्ध स्वरूप प्रावृत्त हो गया है। वैदिक दर्शन प्रात्मा में विकार स्वीकार नहीं करते / वैदिकों में केवल कुमारिल-सम्मत मीमांसा पक्ष ही एक ऐसा पक्ष है जिस के मत में आत्मा परिणामी नित्य होने के कारण विकार-युक्त सम्भव है / जैन दर्शन भी प्रात्मा को परिणामी नित्य मानता है, अतः इस मत में मोक्ष या निर्वाण कृतक भी है और प्रकृतक भी / पर्याय दृष्टि से उसे कृतक कहा जा सकता है. क्योंकि विकार को नष्ट कर शुद्धावस्था को उत्पन्न किया गया है। किन्तु द्रव्य दृष्टि से प्रात्मा और उसकी शुद्धावस्था भिन्न नहीं हैं, अतः उसे अकृतक भी कहते हैं। कारण यह है कि आत्मा तो विद्यमान थी ही, उसे किसी ने उत्पन्न नहीं किया। पृ० 112 पं० 23. सौगत-महायानी बौद्ध मानते हैं कि, बुद्ध बार-बार इस संसार में जीवों के उद्धार के लिए आते हैं और निर्माण काय को धारण करते हैं / इसके साथ गीता का अवतारवाद का सिद्धान्त तुलनीय है। पृ० 113 पं० 26. लोक के अग्रभाग में-मुक्त लोक के अग्रभाग में स्थिर होते हैं / जनों का यह सिद्धान्त स्पष्ट है, तथापि अनेक लेखक जैन मुक्ति के विषय में लिखते हुए लिख देते हैं कि सिद्ध के जीव सतत गमनशील हैं ! इस भ्रम का मूल सर्वदर्शन संग्रह में है। आत्मा को व्यापक मानने वाले सांख्य, न्याय-वैशेषिकादि दर्शनों के मत में मुक्तावस्था के समय लोकाग्र पर्यन्त गमन कर वहाँ स्थिर रहने का प्रश्न ही नहीं रहता। वे व्यापक होने के कारण सर्वत्र हैं / प्रात्मा से केवल शरीर का सम्बन्ध दूर हो जाता है। भक्तिमार्गीय सम्प्रदायों के मत में मुक्त जीव वैकुण्ठ अथवा विष्णुधाम में विष्णु के निकट रहते हैं। हीनयानी बौद्ध जैनों के समान निर्वाण का कोई निश्चित स्थान नहीं मानते / देखें मिलिन्द 4.8.93 पृ० 320. किन्तु महायानी बौद्ध तुषित-स्वर्ग, सुखावी-स्वर्ग जैसे स्थानों की कल्पना करते हैं जहाँ बुद्ध विराजते हैं तथा अवसर प्राने पर निर्माणकाय धारण कर अवतार लेते हैं / सिद्धों के निवास स्थान के वर्णन के लिए देखें--महावीरस्वामी नो अन्तिम उपदेश पृ० 251, अथवा उत्तराध्ययन 36, 57-62. पृ० 114 पं० 16. प्रात्मा सक्रिय है—जिन दर्शनों में प्रात्मा को व्यापक माना गया है, उनमें परिस्पन्दात्मक क्रिया नहीं मानी गई है, किन्तु जैन दर्शन के मतानुसार आत्मा संकोच और विकासशील है, अत: उसमें परिस्पन्दात्मक क्रिया का कोई विरोध नहीं है / पृ० 114 पं० 31. 'लाउय' यह गाथा आवश्यक नियुक्ति की है-~-गाथा 957. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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