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________________ टिप्पणियाँ 203 अर्थ है कि, अधुना के समान कभी भी संसार का अत्यन्त उच्छेद नहीं होता। इसके साथ जैन मान्यता की तुलना करने योग्य है / जैन मान्यता है कि, किसी भी तीर्थंकर से पूछा जाए, उत्तर एक ही प्राप्त होगा कि, भव्यों का अनन्तवाँ भाग ही सिद्ध हुअा है / जीव अनन्त हैं और उनका अनन्नव भाग ही सिद्ध है। भास्वती ने उपनिषद् का निम्न मार्मिक वाक्य भी उद्धृत किया है --'पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते / ' एक अन्य श्लोक भी उद्धृत किया है, वह यह है अतएव हि विद्वत्सु मुच्यमानेषु सर्वदा / ब्रह्माण्डजीवलोकानामनन्तत्वादशून्यता / / योगभाष्य 4.33 देखें। पृ० / / / पं० 19. गाथा 1839 -इसमें मोक्ष को कृतक मानने की जो बात कही गई है, उस हा कुछ स्पष्टीकरण आवश्यक है / बौद्ध सभी वस्तुओं को क्षणिक मानते हैं अर्थात् संस्कृत (कृतक) मानते हैं। किन्तु उन्होंने भी निर्वाग को असंस्कृत ही माना है। राजा मिलिन्द ने प्रश्न किया था कि, क्या कोई ऐसी वस्तु है जो कर्म जन्य न हो, हेतुजन्य न हो तथा ऋतुजन्य न हो। इसके उत्तर में भदन्त नागसेन ने बताया था कि, आकाश पोर निर्वाण ये दो ऐसी वस्तुएँ हैं जो कर्म, हेतु, अथवा ऋतु से उत्पन्न नहीं होती हैं / यह सुन कर राजा मिलिन्द ने तत्काल ही प्रश्न किया कि, ऐसी अवस्था में भगवान् ने मोक्ष मार्ग का उपदेश क्यों दिया ? उसके अनेक कारणों की चर्चा किसलिए की ? नागसेन ने इसका उत्तर देते हुए कहा कि, मोक्ष का साक्षात्कार करना तथा उसे उत्सन करना ये दोनों भिन्न-भिन्न बाते हैं। भगवान् ने जो कुछ कारण बताए हैं वे मोक्ष का साक्षात्कार करने के कारण हैं। भगवान् ने मोक्ष को उत्पन्न करने के कारणों की चर्चा नहीं की है। इस बात के समर्थन के लिए दृष्टान्त दिया गया है कि, कोई भी मनुष्य अपने * प्राकृतिक बल से हिमालय तक पहुंच तो सकता है, किन्तु वह अपने उसी बल से हिमालय को उखाड़ कर अन्यत्र नहीं रख सकता। एक मनुष्य नौका का प्राश्रय लेकर सामने के तीर पर पहुँच तो सकता है किन्तु उस तीर को उखाड़ कर वह किसी भी प्रकार अपने समीप नहीं ला सकता / उसी प्रकार भगवान् निर्माण के साक्षात्कार का मार्ग दिखा सकते हैं किन्तु निर्वाण को उत्पन्न करने के हेतु नहीं बता सकते / कारण यह है कि निर्वाण प्रसंस्कत है, जो संस्कृत हो वह उत्पन्न हो सकता है, किन्तु असंस्कृत वस्तु उत्पन्न हो ही नहीं सकती। विशेष स्पष्टीकरण करते हुए भदन्त नागसेन ने बताया है कि, निर्वाण के असंस्कृत होने के कारण उसे उत्पन्न, अनुत्पन्न , उत्पाद्य, प्रतीत, अनागत, प्रत्युत्पन्न (वर्तमान), चक्षुर्विज्ञ य श्रोत्र विज्ञय, घ्राण विज्ञ य, जिव्हा विज्ञ य, स्पर्श विज्ञ य जैसे किसी भी शब्द से वणित नहीं किया जा सकता / फिर भी 'निर्वाण नहीं है' यह नहीं कहा जा सकता / कारण यह है कि वह मनोविज्ञान का विषय बनता है। विशुद्ध स्वरूप मन द्वारा उसका ग्रहण हो सकता है। जैसे वायु दिखाई नहीं देती है, उसके संस्थान का पता नहीं चलता है, हाथ में पकड़ी नहीं जाती है, फिर भी उसकी सत्ता है। इसी प्रकार निर्वाण भी है--मिलि.द प्रश्न 4.7. 12-15, पृ०263. इस प्रकार असंस्कृत निर्वाण सभी बौद्ध सम्प्रदायों को इष्ट है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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