________________ 202 गणधरवाद पृ० 102 पं0 9. मनुष्य गोत्र कर्म-गोत्र कर्म के मूल भेद दो हैं-उच्च और नीच / इन मल भेदों के अनेक उपभेद समझ लेने चाहिएँ / जैसे कि मनुष्य व देव उच्च में और नरक व तिर्यंच नीच में / (6) पृ० 103 पं० 2. बन्ध-मोक्ष चर्चा-इस प्रकरण में मुख्य रूपेण यह चर्चा है कि बन्ध-मोक्ष सम्भव हैं या नहीं ? भारतीय दर्शनों में केवल चार्वाक दर्शन ही ऐसा है कि जिसमें जीव के बन्ध-मोक्ष को स्वीकार नहीं किया गया है। अन्य दर्शनों में इसे स्वीकृत किया गया है / सांख्यों ने बन्ध-मोक्ष माना तो है किन्तु पुरुष के स्थान पर उन्होंने इसे प्रकृति में माना है। किन्तु यह केवल परिभाषा का भेद है, क्योंकि सांख्य यह मानता है कि अन्त में प्रकृति और पुरुष का विवेक होना ही मोक्ष है, अर्थात् तात्पर्य यह है कि प्रकृति और पुरुष की जो एक्ता समझ ली गई थी, उसका स्थान विवेक ग्रहण कर लेता है और यही मोक्ष है। अन्य दर्शनों में भी यही बात मान्य है। अन्य दर्शन चेतन, अचेतन के विवेक को (चेतन अचेतन के बन्ध के अभाव को) ही मोक्ष कहते हैं / तत्वज्ञान प्रकृति का धर्म हो या पुरुष का, किन्तु सभी यह मानते हैं कि वह अत्यन्त आवश्यक है / अतः साख्य तथा अन्य दर्शनों में इस विषय में परिभाषा का ही भेद है / पृ० 103 पं० 9. 'स एष विगुण:-यह वाक्य कहाँ का है, इसकी शोध नहीं हो सकी। किन्तु इसमें संशय नहीं कि, इस पर सांख्य मत का प्रभाव है / कारण यह है कि सांख्यों के मत में आत्मा में बन्ध, मोक्ष, संसार कुछ भी नहीं माना गया, किन्तु प्रकृति में ये सब स्वीकार किए गए हैं। इस वाक्य के साथ श्वेताश्वतर के इस वाक्य की तुलना करने योग्य है : "कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च' 6.1. पृ० 108 पं० 2. अभव्य-भव्य और अभव्य जीव के दो स्वाभाविक प्रकार हैं ! अन्य दर्शनों में अभव्य शब्द का प्रयोग हुआ हो तो उसका अर्थ 'दुर्भव्य' के समान समझना चाहिए। जीव के ये दो भेद किसलिए किए गए हैं, इसका कुछ भी कारण न रण नहीं बताया जा सकता / अतः आचार्य सिद्धसेन ने इस विषय को आगमगम्य अर्थात् अहेतुवादान्तर्गत गिना है / 10 109 पं० 2. गाथा 1827- इस ाथा मे इस आक्षेप का उत्तर दिया कि, भव्यों के मोक्ष जाने से संसार खाली हो जाएगा। उत्तर में बताया गया है कि. जीव अनन्त हैं, अत: ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं होगी। किसी भी समय ससार की समाप्ति होगी या नहीं' ऐसे प्रश्न के उत्तर में योगभाष्यकार ने कहा है कि, यह प्रश्न अवचनीय है और लिखा है कि यह नहीं बताया जा सकता कि संसार का अन्त है या नहीं, किन्तु कुशल का संसार क्रमश: समाप्त होता है तथा अकुशल का संसार समाप्त नहीं होता, यह बात कही जा सकती है / समस्त संसार के विषय में समान निर्णय नहीं दिया जा सकता / योग-भाष्य की टीका भास्वती में एक प्राचीन वाक्य उद्धृत किया गया है --'इदानीमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेदः'। इसका प्राक्षेप का उत्तर दिया गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org