________________ टिप्पणियां 201 पृ० 91 प० 4. शस्त्रोपहत--किस जीव का घात कौन से शस्त्र से होता है, इसके परिचय के लिए ग्राचारांग का प्रथम अध्ययन देखे / पृ० 92 पं०2. पाँच समिति-1. ईर्या समिति-ऐसी सावधानी से चलना कि किसी जीव को क्लेश न हो। 2. भाषा समिति-सत्य, हितकारी, परिमित, असंदिग्ध वचन का व्यवहार / 3. एषणा समिति-जीवन-यात्रार्थ आवश्यक भोजन के लिए सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति / 4. आदान-भाण्डमात्रनिक्षेपण समिति--पात्रादि वस्तु के लेने, रखने ग्रादि में सावधानी / 5. उच्चार-प्रत्रवण-खेल-जल्ल-सिंघाण परिष्ठापनिका समिति -मलमूत्रादि को योग्य स्थान में त्यागने की सावधानी / पृ० 93 पं० 2. तीन गुप्ति--मन, वचन, काय ये तीन गुप्ति हैं / गुप्ति अर्थात् असत् प्रवृत्ति से निवृत्ति / पृ० 94 पं० 2. इस भव तथा पर-भव का सादृश्य-इस चर्चा में पूर्व पक्ष यह है कि मनुष्य मर कर मनुष्य ही होता है तथा पशु मर कर पशु ही होता है। अब तक यह ज्ञात नहीं हो सका कि यह पूर्व पक्ष किसका है, किन्तु उक्त पूर्व पक्ष के आधार पर कार्य-कारण सदृश ही होता है या नहीं' इस विषय पर जो चर्चा की गई है वह बहुत महत्वपूर्ण है / चार्वाक प्रसत् कार्यवादी हैं, तो भी वे कार्य को सदृश और विसदृश मानते हैं। चैतन्य जैसे कार्यों को वे कारण से विसदृश मानते हैं तथा भौतिक कार्यो को सदृश / चार्वाकों ने एक ही भूत न मानकर चार या पाँच भूत स्वीकार किए हैं। इससे ज्ञात होता है कि उनके मत में सर्वथा विसदृश कार्य का सिद्धान्त मान्य नहीं है / वेदान्त और सांख्य दोनों सत्कार्यवादी हैं, अतः वे स्वीकार करते हैं कि कार्य-कारण सदृश होता है / वेदान्त के मतानुसार कार्य की समस्त विलक्षणता का समन्वय ब्रह्म में है तथा सांख्य के मतानुसार प्रकृति में। कोई भी कार्य वेदान्त मत में ब्रह्म से तथा सांख्य मत में प्रकृति से सर्वथा विलक्षण नहीं है। ब्रह्म के एक होने पर भी उसके कार्यों में जो विलक्षणता दृग्गोचर होती है उसका कारण वेदान्त के अनुसार अविद्या है / प्रकृति के एक होने पर भी उसके कार्यों में जो विलक्षणता है उसका कारण सांख्य मत में प्रकृति के गुणों का वैषम्य माना गया है। नैयायिक, वैशेषिक, बौद्ध ये तीनों असत् कार्यवादी हैं, अत: उनके मतानुसार कार्य कारण से विलक्षण भी हो सकता है। कारण सदश कार्य होता है, इस विषय में इन तीनों को कोई प्रापत्ति या विवाद नहीं है। जैन भी इन सब के समान कार्य को कारण से सदृश और विसदृश मानते हैं। पृ० 102 पं० 9. मनुष्य नाम कर्भ-नाम-कर्म की प्रकृति जिस से जीव मर कर मनुष्य बनता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org