________________ 200 गणधरवाद पृ० 84 पं० 7. परमाणु-न्यायभाष्य (4.2.1 6) में परमाणु को निरवयव कहा है, किन्तु बौद्धों ने इस लक्षण में त्रुटि बताई है और कहा है षट्केन युगपद्योगात् परमाणो: षडंशता / षण्णां समानदेशत्वात् पिण्डः स्यादणुमात्रकः / / विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि का० 1? इसके उत्तर के लिए व्योमवती पृ० 22.5 देखें / पृ० 84 पं० 7. दयणुकादि-दो परमाणुओं के स्कंध को घणुक कहते हैं। किन्तु व्यणुक की रचना के विषय में दार्शनिकों में ऐक्य नहीं है। कुछ तीन परमाणुगों के स्कंध को व्यणुक कहते हैं जबकि अन्य दार्शनिकों का मत है कि तीन व्यणुकों से एक व्यणुक स्कन्ध बनता है। पृ० 84 पं0 30. मूर्ते:---इससे मिलता हुप्रा श्लोक वाचक उमास्वाति ने उद्धृत किया है-- कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्याश्च भवति परमाणुः / एकरसगन्धवर्णो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥तत्वार्थ-भाष्य 5.25 पृ० 85 पं० 25. प्रदर्शन प्रभाव साधक नहीं होता--इस बात का समर्थन प्राचार्य धर्मकीर्ति ने निम्न शब्दों में किया है-- __ "विप्रकृष्टविषयानुपलब्धिः प्रत्यक्षानुमाननिवृत्तिलक्षणा संशयहेतुः प्रमाणनिवृत्तावपि अर्थाभावासिद्धरिति” न्यायबिन्दु पृ० 59--0. पृ० 87 पं० 4. सद्हेतु-हेतु सपक्षवृत्ति हो या न हो, अर्थात् वह चाहे सभी पक्षों में रहे या न रहे, केवल इसी बात से वह सद्हेत अथवा असद्हेतु नहीं बन जाता, किन्तु यदि उसकी वृत्ति विपक्ष में हो तो वह अवश्यमेव असद्हेतु हो जाता है / इसका कारण यह है कि विपक्ष में साध्य का अभाव होता है। इसलिए यदि साध्य के प्रभाव वाले स्थान में भी हेतु विद्यमान हो तो वह साध्य का सद्भाव सिद्ध करने में कैसे समर्थ हो सकता है ? पृ० 88 पं० 20. वायु का अस्तित्व--वायु-साधक युक्तियों के लिए व्योमवती पृ० 27 ? देखें। पृ० 88 पं० 25 प्रकाश साधक अनुमान-न्याय वैशेषिक इस अनुमान से आकाश की सिद्धि करते हैं कि शब्द गण-गणी के बिना सम्भव नहीं हैं और शब्द पृथ्वी प्रादि किसी भी द्रव्य का गण नहीं हो सकता, अतः उसे आकाश का गण मानना चाहिए - व्योमवती पृ० 3 2 2 / परन्तु जैन तो शब्द को गण नहीं मानते, अतः उक्त अनुमान के स्थान में प्राचार्य ने यहाँ जैनसम्मत आकाश के अवगाहदान की योग्यता रूप गण का उपयोग किया है और कहा है कि पृथ्वी आदि मूर्त द्रव्यों का कोई प्राधार होना चाहिए, जो आधार है वही द्रव्य आकाश है, इत्यादि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org