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________________ टिप्पणियाँ 199 पृ० 75 पं० 2. त्रि अवयव वाला वाक्य-यहाँ वाक्य का अर्थ अनुमान वाक्य है। उसके तीन अवयव हैं--प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण / पृ० 75 पं० 3. पाँच अवयव वाला वाक्य-उपर्युक्त तीन तथा उपनय और निगमन ये दो और मिला कर पाँच अवयव हैं 1. पर्वत में वह्नि है-इसे प्रतिज्ञा कहते हैं। अतः इसमें साध्य वस्तु का निर्देश किया जाता है। 2. क्योंकि उसमें धुमाँ है-यह हेतु है। साध्य को सिद्ध करने वाले साधन का निर्देश हेतु कहलाता है / साध्य के साथ जिसकी व्याप्ति (अविनाभाव) हो वही साधन हो सकता है-अर्थात् जो वस्तु साध्य के अभाव में कभी भी उपलब्ध न होती हो, जो साध्य के होने पर ही हो, उसे साधन कहते हैं। उसको देख कर अनुमान हो सकता है कि साध्य अवश्य होना चाहिए / 3. जहाँ-जहाँ धुप्रा होता है वहाँ-वहाँ अग्नि होती है जैसे कि रसोई घर में / जहाँ अग्नि नहीं होती वहाँ धुआँ भी नहीं होता, जैसे कि पानी के कुण्ड में। इस प्रकार जो व्याप्ति दर्शन का स्थान हो उसे दृष्टान्त कहते हैं / उसका निर्देश करना उदाहरण है / प्रस्तुत में रसोई घर साधर्म्य दृष्टान्त कहलाता है, क्योंकि उसमें अन्वय व्याप्ति अर्थात् साधन के सद्भाव में साध्य का सद्भाव बताया गया है। कुण्ड वैधर्म्य दृष्टान्त है, क्योंकि इसमें व्यतिरेक व्याप्ति अर्थात् साध्य के अभाव के कारण साधन का भी अभाव बताया गया है। 4. पर्वत में धुमाँ है-इस प्रकार पक्ष में साधन का उपसंहार करना उपनय कहलाता है। 5. अतः पर्वत में अग्नि है--इस प्रकार साध्य का उपसंहार निगमन कहलाता है / पृ० 76. पं० 1---सापेक्ष नहीं-न्यायसूत्र 4.1.40 देखें / पृ० 76 पं० 23. सापेक्ष--प्राचार्य समन्तभद्र ने इन दोनों एकान्तों का निराकरण किया है कि, सब कुछ सापेक्ष ही है अथवा निरपेक्ष ही है / प्राप्तमीमांसा का० 73-75. पृ० 77 पं० 33--अग्निदह ति--पूरा श्लोक यह है-- इदमेवं न वेत्येतत् कस्य पर्यनुयोज्यताम् / अग्निदेहति नाकाशं कोऽत्र पर्यनुयुज्यताम् // प्रमाणवातिकालंकार पृ० 43 पृ० 79 पं० 5. व्यवहार और निश्चय-प्राचार्य कुन्दकुन्द ने व्यवहार और निश्चय का जिस प्रकार पृथक्करण किया है उसके लिए न्यायावतारवातिक वृत्ति प्रस्तावना पृ० 139 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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