________________ 198 गणधरवाद तस्मादेतत्क्वचिन्नास्ति त्वं चाहं वा इमे इदम् / नास्ति दृष्टान्तिकं सत्ये नास्ति दाष्टान्तिकं ाजे // 26 / / इत्यादि विचार तेजोबिन्दूपनिषद् के पाँचवें अध्याय में मिलते हैं। उसमें निष्प्रपंच ब्रह्म की सिद्धि के लिए जिस प्रकार के विचार हैं उसी प्रकार के विचार नागार्जुन के भी हैं / भेद केवल यह है कि एक को ब्रह्म की सिद्धि करनी है और दूसरे को शून्य की। पृ० 63 पं० 9. हस्व-दीर्घत्व-न्यायवार्तिक में भी यही उदाहरण है-न्यायवातिक 4.1.39. पृ० 68 पं० 10. स्वतः--यह नागार्जुन को युक्ति है न स्वतो नापि परतो न द्वाभ्यां नाप्यहेतुतः / उत्पन्ना जातु विद्यन्ते भावाः क्वचन केचन // 11 // न स्वतो जायते भावः परतो नैव जायते / न स्वतः परतश्चैव जायते जायते कुतः ।।२१।१३।।मूलमा० पृ० 7 / पं० 6. उत्पत्ति—यह चर्चा माध्यमिक वृत्ति 1.4 में है / तुलना करें उत्पद्यमानमुत्पादो यदि चोत्पादयत्ययम् / उत्पादयेत् तमुत्पादं उत्पादः कतमः पुनः / / 18 / / अन्य उत्पादयत्येनं यद्युत्पादोऽनवस्थितिः / अथानुत्पाद उत्पन्नः सर्वमुत्पद्यते तथा / / 16 / / सतश्च तावदुत्पत्तिरसतश्च न युज्यते / न सतश्चासतश्चेति पूर्वमेवोपपादितम् ।।२०।।मूलमा०का० / पृ० 71 पं० 25. गाथा 1695-तुलना करें-- हेतोश्च प्रत्ययानां च सामग्र या जायते यदि। फलमस्ति च सामग्र यां सामग्र या जायते कथम् / / हेतोश्च प्रत्ययानां च सामग्र या जायते यदि। फलं नास्ति च सामग्र यां सामग्र या जायते कथम् // 2 // हेतोश्च प्रत्ययानां च सामग्र यामस्ति चेत् फलम् / गृह्यते ननु सामग्र यां सामग्र यां च न गृह्यते // 3 // हेतोश्च प्रत्ययानां च सामन यां नास्ति चेत् फलम् / हेतवः प्रत्ययाश्च स्युरहेतुप्रत्ययैः समाः ॥४॥मलमा०का० 20 हे तुप्रत्ययसामग्र यां पृथग्भावेऽपि मद्वचो न यदि। ननु शून्यत्वं सिद्धं भावानामस्वभावतः ॥विग्रहव्यावर्तनी 21 पृ० 74 पं० 8. गाथा 1702- इसके साथ न्यायसूत्र 'स्मतिसंकल्पवच्च स्वप्नविषयाभिमानः' (4.2 34) तथा उसके भाष्य की तुलना करने योग्य है। पृ० 74 पं० 11. गाथा 1703. स्वप्न के विषय में प्रशस्तपाद पृ० 548 देखें / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org