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________________ 196 गणधरवाद सारांश यह है कि आँख आदि इन्द्रियाँ अथवा इन्द्रियों के विषय रूपादि तथा उनले होने वाले विज्ञान और अन्य सब पदार्थों में उनकी प्रात्मा जैसी या प्रात्मीय (स्वभाव) जैसी कोई वस्तु नहीं है / इसी अर्थ को सन्मुख रख लोक को शून्य कहा गया है / बौद्ध सभी पदार्थों को क्षणिक मानते हैं, अतः उनके अनुसार कोई भी वस्तु निरपेक्ष (स्वभाव) से नहीं होती, अर्थात् नित्य नहीं होती। प्रत्येक वस्तु सामग्री से उत्पन्न होने के कारण सापेक्ष है, अर्थात् कृतक है और अनित्य है। किसी भी वस्तु का अस्तित्व स्वभाव के कारण नहीं किन्तु उसके उत्पादक कारणों पर आश्रित है / दूसरे शब्दों में वह प्रतीत्यसमुत्पन्न है, किसी न किसी कारण की अपेक्षा रख कर उत्पन्न हुई है / बौद्ध 'प्रतीत्यसमुत्पन्न' को ही 'शून्य' कहते हैं / जैसे कि स यदि स्वभावतः स्याद् भावो न स्यात् प्रतीत्यसमुद्भूतः / यश्च प्रतीत्य भवति ग्राहो ननु शून्यता सैव // यः शून्यतां प्रतीत्यसमुत्पादं मध्यमां प्रतिपदमेकार्थम् / निजगाद प्रणमामि त मप्रतिमसम्बुद्धमिति / / --विग्रहव्यावर्तनी, बोधिचर्यावतार पृ० 356. यहाँ दिए गए शून्यवाद के पूर्वपक्ष का अाधार मध्यमकावतार ज्ञात होता है / उपनिषदों में भी शून्य शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है। वहाँ भी उसका अर्थ 'सर्वथा अभाव' घटित नहीं होता। जैसे कि सर्वदा सर्वशून्योऽहं सर्वात्मानन्दवानहम् / नित्यानन्दस्वरूपोऽहमात्माकाशोऽस्मि नित्यदो / 3 / 27 / / शून्यात्मा सूक्ष्मरूपात्मा विश्वात्मा विश्वहीनकः / देवात्मा देवहीनात्मा मेयात्मा मेयजितः / 4 / 43 / / तेजोबिन्दु उपनिषद् भावाभावविहीनोऽस्मि भासाहीनोऽस्मि भास्म्यहम् / शून्याशून्य प्रभावोऽस्मि शोभनाशोभनोऽस्म्यहम् // मैत्रेय्युपनिषद् 3.5. पृ० 67 पं० 12. स्वप्नोपमम्-इसके समर्थन के लिए देखें - दृश्यते जगति यद्यद्यद्यज्जगति वीक्ष्यते / वर्तते जगति यद्यत्सर्वं मिथ्येति निश्चिनु // 55 / / इदं प्रपञ्चं यत्किंचिद्यद्यज्जगति विद्यते / दृश्यरूपं च दग्रूपं सर्वं शशविषाणवत् // 75 / / भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च / अहंकारश्च तेजश्च लोकं भुवनमण्डलम् // 76 / / तेजोबिन्दूपनिषद् अ० 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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