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________________ टिप्पणियाँ 195 पृ० 59 पं० 24. एक ज्ञान ----बौद्धों के इस सिद्धान्त का मूल इस कारिका में है 'विजानाति न विज्ञानमेकमर्थद्वयं यथा / एकमर्थं विजानाति न विज्ञानद्वयं तथा / / सर्वार्थ सिद्धि (1.12) में उद्धत है / पृ०59. पं० 24. 'क्षणिका' --क्षणिकाः सर्वसंस्काराः अस्थिराणां कुतः क्रिया। भूतियेषां क्रिया सैव कारकं सैव चोच्यते // __-बोधिचर्यावतार पंजिका में उद्धृत पृ० 376. पृ० 60 पं० 31. प्रसिद्ध धर्मी--अनुमान की प्रतिज्ञा का प्राकार यह है-'पर्वत धूम वाला है' / इसमें जो पर्वत है उसे पक्ष या धर्मी कहते हैं / कारण यह है कि उसमें वह्नि रूप धर्म को सिद्ध करना है। इसमें वह्नि रूप धर्म मप्रसिद्ध होता है, अतः वह साध्य बनता है. किन्तु पर्वत तो प्रसिद्ध ही होना चाहिए। इसीलिए कहा जाता है कि पक्ष प्रसिद्ध धर्मी होता है। पृ० 63 पं० 3. क्षयोपशम-कर्म का क्षय और उपशम होना 'क्षयोपशम' है / अर्थात् कर्म के अमुक अंश का प्रदेशोदय द्वारा क्षय हो तथा जो कर्म सत्ता में हो उसके उदय को रोका जाए अर्थात् उपशम किया जाए / 10 63 46. गाथा 1682-तुलना अतिदूरात् सामीप्यादिन्द्रियघातान्मनोऽनवस्थानात् / सौक्षम्याद् व्यवधानादभिभवात् समानाभिहाराच्च / / सांख्यकारिका 7.. पृ० 67 पं० 1. गणधर व्यक्त---दिगम्बर परम्परा में शुचिदत्त नाम भी उपलब्ध होता है-हरिवंशपुराण 3.42. पृ० 67 पं० 2. शून्यवाद-यह चर्चा वेद-वाक्य का आधार ले कर शुरू की गई है किन्तु सारी चर्चा में पूर्व पक्ष के रूप में माध्यमिक बौद्धों की युक्तियों का प्रयोग किया गया है। बौद्ध जब 'शुन्य' शब्द का प्रयोग करते हैं तब उसका अर्थ 'सर्वथा अभाव' नहीं समझना चाहिए, किन्तु सभी वस्तुएँ स्वभाव-शून्य हैं अर्थात् किसी भी वस्तु में उसकी आत्मा नहीं (द्रव्य नहीं) यही अर्थ समझना चाहिए / आनन्द ने भगवान् बुद्ध से पूछा कि, आप बार-बार यह कहते हैं कि लोक शून्य है, इस शून्य का अर्थ क्या समझना चाहिए ? इसके उत्तर में भगवान् बुद्ध ने कहा कि “यस्मा च खो आनन्द सूञ अत्तन वा अत्तनियेन वा तस्मा सूओ लोको ति वच्चति / किं च प्रानन्द सूझं अत्तन वा अत्तनियेन वा ? चक्खु खो प्रानन्द सुझं अत्त न वा अत्तनियेन वा....रूपं....रूप--विज्ञआणं ।"--इत्यादि संयुक्तनिकाय 35.85. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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