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________________ 194 गणधरवाद पृ० 49 पं० 24. गाथा 1650 -इपका मूल चार्वाक के इस सूत्र में है कि 'पृथ्वीअप्-तेजो-वायुरिति तत्वानि / तत्समुदाये शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञा।' यह सूत्र चार्वाकों के 'तत्वोपप्लवसिंह' नामक ग्रन्थ में है (पृ. 1) / न्यायकुमुदचन्द्र पृ० 341 देखें / चार्वाकों का सूत्र-ग्रन्थ में यह सूत्र भी उपलब्ध होता है कि 'तेभ्यश्चैतन्यम्' न्यायकुमुदचन्द्र पृ० 342 देखें / __चार्वाकों के इस मत के निरास के लिए निम्न ग्रन्थ देखें-न्यायसूत्र 301 से; न्यायमंजरी पृ० 437; व्योमवती 391; श्लोकवार्तिक-यात्मवाद; प्रमाणवार्तिक 1.37 से; तत्वसंग्रह कारिका 1857-1964; ब्रह्मसूत्र शांकर-भाष्य 3.3.53; धर्म संग्रहणी गा० 36 से; अस्टसहस्री पृ० 63; तत्वार्थ श्लोकवार्तिक पृ॰ 26; प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० 110; न्यायकुमुदचन्द्र पृ० 341; स्याद्वादरत्नाकर पृ० 1080; न्यायावतारवातिक वृत्ति पृ० 45 / गाथागत मद्यांग से मद का उदाहरण भी चार्वाक के सूत्र में दिया हुआ है 'मदशक्तिवद् विज्ञानम्' यह सूत्रांश न्यायकुमुदचन्द्र (पृ. 342) में उद्धृत है, किन्तु शांकर भाष्य में (3.3.53) यह सूत्र अपने पूरे रूप में इस प्रकार है-"तेभ्यश्चैतन्यं मदशक्तिवद् विज्ञानं चैतन्यविशिष्ट: कायः पुरुषः' इस युक्ति का खण्डन प्राचार्य समन्तभद्र ने भी किया है. युक्त्यनुशासन 351 पृ० 53 पं०10. गाथा 1657-60. यही युक्ति प्रशस्तपाद ने (पृ० 360) भी दी है। अपि च न्यायसूत्र 3.1.1-3 देखें। पृ० '55 पं. 6. गाथा 1661-इसके साथ न्यायसूत्र 3.1.19 की तुलना करें। पृ० 55 पं० 18. प्रतिज्ञा—जिस वाक्य में स्वेष्ट साध्य का निर्देश हो उसे प्रतिज्ञा कहते हैं / प्रतिज्ञा प्रसिद्ध होती है, अतः उसका अंश भी प्रसिद्ध होता है / अतएव जो प्रतिज्ञा का अंश हो उसे हेतु नहीं बनाया जा सकता / कारण यह है कि हेतु प्रसिद्ध होता है। वायुभूति का यहाँ यही प्राशय है। पृ० 55 पं० 30. आगम-तुलना करें-योगदर्शन कारिका 101. पृ० 56 पं० 3. गाथा 1662.-इस युक्ति के लिए देखें न्यायसूत्र 3.1.22. पृ० 56 पं० 29. गाथा 1663--न्यायभाष्य 3.1.25. पृ० 59 पं० 1. विज्ञान क्षण के संस्कार- इसके लिए देखेंप्रतिक्षणविनाशे हि भावानां भावसन्ततेः / तथोत्पत्त: सहेतुत्वादाश्रयोऽयुक्तमन्यथा ॥प्रमाण वार्तिक 1.66. बौद्धों का निम्न श्लोक सर्वत्र प्रसिद्ध हैयस्मिन्नव हि सन्ताने आहिता कर्मवासना / फलं तत्रैव सन्धत्त कापसे रक्तता यथा // विशेष विवरण के लिये देखें बोधिचर्यावतार पंजिका पृ० 472. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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