________________ टिप्पणियाँ 193 पृ० 40 पं० 9. धर्म-अधर्म-अग्निभूति ने नैयायिक-वैशेषिक, सांख्य-योग की परिभाषा का उपयोग कर यह पूर्वपक्ष रखा है। कारण यह है कि वे शुभाशुभ कर्म को धर्मअधर्म की संज्ञा देते हैं। पृ० 42 पं० 16. ईश्वरादि कारण नहीं-इसके विस्तारार्थ के लिये देखें स्याद्वादमंजरी का० 6. पृ० 44 पं० 4 स्वभाववाद ---वस्तु के स्वभाव को ही कार्य-निष्पत्ति में कारण मानना स्वभाववाद है। यह वाद अत्यन्त प्राचीन है। उपनिषदो में भी इसका उल्लेख है। इसी वाद का प्राश्रय ले कर गीता में जाति-भेद के आधार पर कर्तव्य-भेदों का प्रतिपादन किया गया है (18.41) / अन्त में यह भी सूचित किया है कि "यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे / मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति // 1856 / / स्वभावजेन कौन्तेय! निबद्धः स्वेन कर्मणा। कतु नेच्छसि यन्मोहात् करिष्यस्यवशोऽपि तत् / " 18 / 60 // गीता में इस स्वभाववाद का समर्थन अन्य अनेक स्थलों में भी है कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः / 3 / 5 / सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेः ज्ञानवानपि / प्रकृति यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति // 3 / 33 / / न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः / न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते / 5 / 14 / पृ० 47 पं० 1. विधिवाद-विधिविधायकः' न्यायसूत्र 2.1.63. पृ० 47 पं० 2. अर्थवाद-'स्तुतिनिन्दा परकृतिः पुराकल्प इत्यर्थवादः' न्यायसूत्र 2.1.64. पृ. 47 पं० 4. अनुवाद-विधिविहितस्यानु वचनमनुवादः' न्यायसूत्र 2.1.65. पृ०49 पं०2. जीव-शरीर-जीव और शरीर एक ही हैं, यह वाद भी चार्वाकों का ही है / प्राचीन ग्रन्थों में इस वाद का उल्लेख 'तज्जीव तच्छरीरवाद' के नाम से उपलब्ध होता है / इस वाद में चार्वाकों का यह पूर्वपक्ष उपस्थित किया गया है कि, शरीर भूत-निष्पन्न है, अत: चेतना भी भूतों के समुदाय से निष्पन्न होती है / यहाँ यह सिद्ध किया गया है कि भूत चैतन्य का उपादान कारण नहीं हैं किन्तु पात्मा (चेतन) यह एक स्वतन्त्र तत्व है तथा चैतन्य उसका धर्म है। पृ. 49 पं० 17 समवसरण-भगवान् की व्याख्यान-सभा को समवसरण कहते हैं / ऐसा माना जाता है कि उसमें देव भी उपस्थित रहते थे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org