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________________ 192 गणधरवाद अदृष्टो भूतधर्मस्तु जगद्वैचित्र्यकारणम् / यदि कश्चिदुपेयेत को दोषः कर्मकल्पने / / संज्ञामात्रे विवादश्च तथा सत्यावयोर्भवेत् / भूतवद् भूतधर्मस्य न चादृश्यत्वसम्भवः / / दृष्टश्च साध्वीसुतयोर्यमयोस्तुल्यजन्मनोः / विशेषो वोर्यविज्ञानसौभाग्यारोग्यसम्पदाम / / स्वाभाविकत्वं कार्याणामधुनैव निराकृतम् / तस्मात् कर्मभ्य एवैष विचित्रजगदुद्भवः / / -न्यायमंजरी पृ० 48 ! 1032 पं०७. अन्तराल गति-मृत जीव को जब तक नए शरीर की प्राप्ति न हुई हो तब तक की गति को 'अन्तराल गति' कहते हैं। स्थूल शरीर मृत्यु के समय ही अलग हो जाता है, अतः उस समय जीव कार्मण शरीर अथवा आत्म-सम्बद्ध कर्म की सहायता से गति करता है। बौद्ध कार्मण शरीर को 'अन्तराभव शरीर' कहते हैं, वह भी जैनों के समान मूर्त है-प्रमाणवातिक 1.85 (मनोरथ)। पृ० 32 पं० 20. योग-प्रर्थात् व्यापार वह तीन प्रकार का है-मन से, वचन से, शरीर से / यहाँ कार्मण नामक शरीर का व्यापार विवक्षित है। पृ०35 पं० 10. न चाहने पर भी अदृष्ट फल-गीता में फल की प्रासक्ति छोड़ने की जो बात कही है उसका तात्पर्य भी यही है कि इन्द्रियों का जो सुखादि रूप फल है उसकी त्रासक्ति नहीं रखनी चाहिए / किन्तु जो दानादि हमारे कर्तव्य हैं उनका पाचरण अनासक्त भाव से यदि कोई करे तो उसे उसका फल मोक्ष सुख मिलता ही है। गीता के मतानुसार ब्राह्मण आदि जातियों के कर्त्तव्य स्वाभाविक माने गए हैं; (18.42) / जिस जाति का जो स्वाभाविक कर्तव्य है उसे उस कर्त्तव्य को छोड़ना नहीं चाहिए। किन्तु जैन दृष्टि से जातिगत स्वाभाविक कर्तव्य कोई नहीं है / सदनुष्ठानों की जो भी सूची है, वह सर्वसाधारण है। गीता ने ब्राह्मणों के शम आदि जो कर्तव्य गिनाए हैं उनका आचरण शूद्र भी कर सकते हैं और उससे वे मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, यह जैन मान्यता है : पृ. 36 पं. 29. कर्म मूर्त है-यहाँ मूर्त का अर्थ है रूप, रसादि से युक्त / इसी प्रकार की युक्तिपों के लिए देखें-अष्टसहस्री का० 98. पृ० 37 पं० 2. उपादान कारण---घट मिट्टी से उत्पन्न होता है, अतः मिट्टी घड़े का कारण है। इसी प्रकार कुम्हार घट को दण्ड, चक्रादि द्वारा उत्पन्न करता है, अत: दण्डादि भी घट के कारण हैं। इन दोनों प्रकार के कारणों का अन्तर बताने के लिए मिट्टी को उपादान कारण कहते हैं तथा दण्डादि को निमित्त कारण / कार्य निष्पत्ति किसी एक से न होकर दोनों से होती है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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