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________________ टिप्पणियां 191 विज्ञान ही है, अतः उनके अनुसार विज्ञान ही शब्दार्थ बनता है तथा मीमांसकादि अन्य वस्तवादी दार्शनिकों के मत में वस्तुए ही शब्दार्थ बनती हैं। पदों के दो भेद किए जाते हैंनाम पद तथा पाख्यात पद / नाम पद के चार भेद हैं-जातिशब्द, गुणशंब्द, द्रव्यशब्द, क्रियाशब्द / इन भेदों को ध्यान में रख कर प्रस्तुत में शब्द का अर्थ जाति, द्रव्य, क्रिया अथवा गुण हैं, ये विकल्प किए गए हैं --न्यायमंजरी पृ० 297. (2) 1029 पं02. कर्म के अस्तित्व की चर्चा--कर्म का सामान्य अर्थ क्रिया होता है, किन्तु यहाँ इस विषय की चर्चा नहीं है / कारण यह है कि क्रिया तो सबको प्रत्यक्ष है। किन्तु इस क्रिया के कारण प्रात्मा में वासना, संस्कार अथवा पोद्गलिक कर्म के नाम से विख्यात जिस पदार्थ का ससर्ग होता है, उसके सम्बन्ध में अग्निभूति को संशय है / वह पदार्थ अतीन्द्रिय है, अतः उसकी सत्ता के विषय में सन्देह का अवकाश भी है। भारतीय दर्शनों में केवल चार्वाक ने कर्म का अस्तित्व स्वीकार नहीं किया, शेष सभी दर्शनों में वह स्वीकृत है / अतः यह समझ लेना चाहिए कि यहाँ अग्निभूति द्वारा उपस्थित की गई शंका चार्वाक मत के अनुसार है / 1030 पं० 2. पुरुष-इस वाक्य का तात्पर्य पहले कहा जा चुका है / उसके अनुसार संसार में केवल पुरुष ही है. उससे भिन्न कोई भी वस्तु नहीं है, अत: कर्म के अस्तित्व का भी अवकाश नहीं रहता। इससे यदि वेद के अन्य वाक्यों के आधार पर कर्म का अस्तित्व सूचित होता हो तो कर्म के सम्बन्ध में सन्देह होना स्वाभाविक है। 4.30 पं० 12. कर्म का फल-जयन्त ने कर्म की सिद्धि के लिए जो युक्तियाँ दी हैं वे यहाँ उद्धृत की जाती हैं तथा च केचिज्जायन्ते लोभमात्रपरायणाः / द्रव्यसंग्रहणैकाग्रमनसो मूषिकादयः / मनोभवमयाः केचित् सन्ति पारावतादयः / कूजप्रियतमा चञ्चुचुम्बनासक्तचेतसः / / केचित् क्रोधप्रधानाश्च भवन्ति भुजगादयः / ज्वल द्विषानलज्वालाजालपल्लविताननाः / / जगतो यच्च वैचित्र्य सुखदुःखादिभेदतः / कृषिसेवादिसाम्येऽपि विलक्षणफलोदयः / / अकस्मान्निधिलाभश्च विद्युत्पातश्च कस्यचित् / क्वचित् फलमयत्नेऽपि यत्नेऽप्यफलता क्वचित् // तदेतद् दुर्घटं दृष्टात् काणात् व्यभिचारिणः / तेनाष्टमुपेतव्यमस्य किंचन कारणम् // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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