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________________ 190 गणधरवाद है / उसमें बताया गया है कि जैसे तलवार अपनी म्यान में व्याप्त है वैसे ही प्रज्ञात्मा शरीर में नख और रोम पर्यन्त याप्त है (4.20) / बृहदारण्य क के अनुसार प्रात्म। चाँवल अथवा यव के कण जितनी है-5.6.1 / विविध उपनिषदों में प्रात्मा को अंगुष्ठ प्रमाण बताया गया है---- कठोप 2.2.12; श्वेता० 3.13.5.8-9; किन्तु छान्दोग्य उपनिषद् में उसे बालिस्त जितनी बतायी गयी है / अनेक बार आत्मा को उपनिषदों में व्यापक रूप में प्रतिपादित किया गया हैमुण्डको० 1 1.6. / इस प्रकार के विरोधी मन्तव्य सन्मुख उपस्थित होने के कारण कुछ ऋषि तो उक्त सभी परिमाण वाली प्रात्मा का ध्यान करने की प्रेरणा करते हैं और कुछ उसे अणु से भी अणु तथा महान् से भी महान् मानने . की बात करते हैं--मैन्युपनिषद् 6.38; कठो० 1.2.20; छान्दो० 3.14.3 / न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसा ये सभी दर्शन तथा शंकराचार्य प्रात्मा को व्यापक मानते हैं। इसके विपरीत जैन तथा रामानुजादि वेदान्त के अन्य प्राचार्य जीव को क्रमशः देह-परिमाण तथा अणु-परिमाण मानते हैं / पृ०23 पं०16. उपलब्धि-ज्ञान द्वारा प्राप्ति अथवा ग्रहण / 1024 पं024. गाथा 1593-96. उपनिषद के वाक्य का यहाँ जो अर्थ किया गया है वह बौद्ध प्रक्रिया का अनुसरण करके किया गया है। जैन द्रव्य-पर्याय उभयवादी हैं, अतः वे इस प्रक्रिया को पर्यायाश्रित घटित कर लेते हैं / इस प्रकार जैन वाक्य का युक्त अर्थ करने का प्रयत्न करते हैं। पृ०26 पं०19. अन्वय-व्यतिरेक-किसी एक वस्तु की सत्ता के आधार पर अन्य वस्तु की सत्ता हो तो कहा जाता है कि वहाँ अन्वय है, तथा एक वस्तु की सत्ता के अभाव में अन्य वस्तु की असत्ता हो तो वहाँ व्यतिरेक माना जाता है। प० 26 पं0 21. विज्ञान भूत-धर्म नहीं-- चार्वाक की मान्यता है कि विज्ञान भूत-धर्म है। बौद्धों ने इसका खण्डन किया है--प्रमाण-वातिक अ० पृ० 67-112; देखें-न्यायावतार वा० टि० पृ० 206 विशेषतः द्रष्टव्य है / पृ०27 पं०3. अस्तमिते आदित्ये-यह वाक्य बृहदा० 4.3.6 में है / पृ०27 पं० 22. पद का क्या अर्थ है-इसकी चर्चा के लिए न्यायसूत्र 2.2.60 से / देखें-न्यायमंजरी पृ० 297. कोई पद का अर्थ व्यक्ति, कोई जाति तथा कोई प्राकृति मानता था। इन तीनों पक्षों का निरास कर न्यायसूत्र में गौण मुख्य भाव से इन तीनों को पद का वाच्यार्थ माना गया है / मीमांसकों ने प्राकृति और जाति को एक ही मानकर जाति को पदार्थ माना है किन्तु बौद्धों ने अन्यापोह (अन्यव्यावृत्ति) को शब्दार्थ माना है। जैन मत में वस्तु सामान्य विशेषात्मक होने से वही वाच्य है / इस गाथा में जो तीन विकल्प किए गए हैं वे शब्द-ब्रह्मवादी वैपाकरण, विज्ञानाद्वैतवादी योगाचार बौद्ध तथा अन्य वस्तुवादी दार्शनिकों की अपेक्षा से किए गए प्रतीत होते हैं। कारण यह है कि शब्दब्रह्मवादी के मत में बाह्य विश्व भी शब्द का ही प्रपंच होने से शब्दात्मक है / अतः शब्द का अर्थ शब्द ही होता है / विज्ञानाद्वैतवादी के मत में प्रान्तर-बाह्य सब कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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