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________________ टिप्पणियो 189 पृ०16 पं07 प्रतिपक्षी-विरोधी। पृ०16 पं० 28. खर-विषाण नहीं है-इसी बात को शश-विषाण के उदाहरण द्वारा न्यायवार्तिक (पृ० 340) में कहा गया है / पृ०17 5012. समवाय -- गुण-मुणी का, द्रव्य-कर्म का द्रव्य-सामान्य का, द्रव्य-विशेष का जो सम्बन्ध है, उसे नैयायिक समवाय कहते हैं / पृ०19 पं० 2. माथा 1575-व्योमवती पृ०407.---' अहंशब्दो बाह्य बाधितै-(शब्दो. ह्यबाधित) कपदत्वादवश्यं वाच्यमपेक्षते ।"--न्यायवार्तिक पृ० 337; तत्वसंग्रह पृ० : 1. पृ०20 पं०11. गाथा 1578 प्राप्त वचन को प्रमाणता के लिए न्यायवार्तिककार ने तीन कारण बताए हैं--1. वस्तु का साक्षात्कार, 2. भूतदया, 3 जैसा ज्ञान किया हो वैसा ही कथन करने की इच्छा--न्यायवा० 2.1.69. पृ०:0 प०22. उपयोग लक्षण--ज्ञान तथा दर्शन को उपयोग कहते हैं, वे जिसके लक्षण हों उसे उपयोगलक्षण कहा जाता है / पृ०21 पं०2. विकल्पशून्य--भेदरहित / पृ०21 पं०5. जिसका मूल-यहाँ वटवृक्ष के साथ संसार की तुलना करके रूपक का वर्णन किया है / जैसे वटवृक्षों के मूल ऊँचे होते हैं और वे जमीन की ओर नीचे फैलते हैं, वैसे ही ससार भी एक ही ईश्वर का प्रपंच है। वह ईश्वर ऊपर है अर्थात् उच्चदशा में है, किन्तु उससे उत्पन्न होने वाले जीव निम्न अर्थात् पतितावस्था में हैं / पृ०21 पं06. छन्द--वेद को छन्द कहते हैं / / पृ. 21 पं०9. जो कांपता है--शंकराचार्य की व्याख्या के अनुस र आत्मा व्यापक है, अतः उसमें कम्पन या चलन घटित नहीं होता; फलतः वह स्वतः अचल होकर भी चलित के समान प्रतीत होता है, इसका यह अर्थ समझना चाहिए / दूर का अर्थ देशकृत दूर नहीं है, किन्तु . अविद्वान् पुरुष के लिए करोड़ों वर्षों तक उसकी प्राप्ति सम्भव नहीं है, इस अर्थ में दूर का प्रयोग समझना चाहिए / विद्वान् पुरुष के लिए प्रात्मा निकट है, क्योंकि उसे वह साक्ष त् दिखाई देती है। नाम-रूपात्मक जगत् मर्यादित है, किन्तु प्रात्मा व्यापक है, अतः वह उस के भी बाहर है। तथा प्रात्मा निरतिशयरूपेण सूक्ष्म होने के कारण सभी वस्तुओं के अन्तर में है। पृ०21 पं०13. जीव अनेक है-'प्रात्मा अनेक हैं' यह मत न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसक, जैन तथा बौद्धों का है / इससे विपरीत शांकर-वेदान्त प्रात्मा को एक मानता है / पृ०22 पं०6. गाथा 1582 प्रात्मा अनेक हैं, इस विषय की युक्तियाँ सांख्यकारिका 18 में देखें। 1023 पं०14. जोव सर्वव्यापी नहीं है-उपनिषदों में प्रात्मा के परिमाण के विषय में भिन्न-भिन्न कल्पनाएं हैं----कौषीत की उपनिषद में प्रात्मा को शरीरव्यापी वणित किया गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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