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________________ 188 गणधरवाद पृ०10 पं023. शब्द पौद्गलिक है -न्याय-वैशषिक मत में शब्द यह नित्य आकाश का गण है। किन्तु सांख्य के मन में शब्द (तन्मात्रा) से प्राकाश नामक भूत उत्पन्न होता है और उसका गुण शब्द है / वैयाकरण भत हरि के मत में शब्द ब्रह्म है और यह विश्व उसी का प्रपंच हैवाक्यपदीय 1.1. / मीमांसक वर्ण को शब्द मानते हैं और उसकी अनेक अवस्थाए स्वीकार करते हैं (शस्त्रदी० पृ० 261,263) / वे उसे नित्य भी मानते हैं। इसके विपरीत कुछ विद्वान् शब्द को अनित्य मानते हैं। मीमांसक मत में शब्द द्रव्य होकर भी पौद्गलिक नहीं है, जबकि जैन मतानुसार वह पौद्गलिक है। मीमांसक मत में शब्द व्यापक है, किन्तु जैनमतानुसार शब्द लोक में सर्वत्र गमन की शक्ति वाला है / पृ०10 पं०19. गुण-गुणी का भेदाभेद--न्याय-वैशेषिक गुण-गुणी का भेद स्वीकार करते हैं / बौद्ध मत में गुणी (द्रव्य) जैसा कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है, केवल गुणों की सत्ता है। जैन व मीमांसक गुण-गुणी का भेदाभेद मानते हैं / सांख्यमत में दोनों का अभेद है। पृ०11 पं०18. गुण कभी भी गुणी के बिना नहीं होते—यह युक्ति प्रशस्तपाद ने भी दी है (पृ. 360) / सुख-दुःखादि गुण हैं, अतः गुणी का अनुमान करना चाहिए / वे शरीर और इन्द्रियों के गुण तो हैं नहीं, अतः प्रात्म-द्रव्य मानना चाहिए। इसी प्रकार न्यायसूत्र में भी पारिशेष्य से प्रात्मसिद्धि की गई है (3.2.40); न्यायभाष्य भी देखें 1.1.5. पृ०11 पं0 26. गाथा 1561 -- इस गाथा का पूर्वपक्ष न्यायसूत्र में भी है / न्यायसूत्र 3.2.47 से / पृ०11 पं०32. गाथा 1562-गाथागत युक्ति प्रशस्तपाद (पृ० 360) में है / पृ०12 पं० 18. गाथा 1563 --प्रा० जिनभद्र ने नियुक्ति का अनुसरण कर जिस प्रकार व द का उपक्रन किया है तदनुसार इस गाथा में दी गई युक्ति ठीक है / पृ०13 पं०5. गाथा 1564--प्रशस्तपाद ने भी यह युक्ति दी है (पृ. 360) / विशेष के लिये देखें-व्योमवती पृ० 404. पृ०13 पं0 26. गाथा 1567--ऐसी ही युक्तियों के लिए देखें--प्रशस्तपाद पृ०360, व्योमवती पृ० 391. पृ०14 पं० 6. आत्मा को केवल जैन ही संसारी अवस्था में कथंचित् मूर्त मानते हैं। पृ०14 पं०27. ईश्वर-न्याय-वैशेषिक ईश्वर को जगत्कर्ता के रूप में मानते हैं / जैनों के समान बौद्ध, सांख्ययोग तथा मीमांसक ईश्वर को जगत्कर्ता नहीं मानते / ईश्वरकर्तृत्व सिद्धि के लिए न्यायवार्तिक 457, प्रात्मतत्वविवेक 377 देखें; निराकरण के लिए मीमांसा श्लोकवातिक सम्बन्धाक्षेप परिहार 42 से; तत्वसंग्रह 46 से, प्राप्तपरीक्षा करिका 8; अष्टसहस्री पृ० 268; स्यादवादरत्नाकर पृ० 496 देखें। वेदान्त में प्राचार्य शंकर ने ईश्वर को जगत् का अधिष्ठाता और उपादानकारण रूप सिद्ध किया है। ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य 2.2.37-41. पृ०15 पं०9. गाथा 1571-72-न्यायवार्तिक (3.1 1) में भी ऐसी युक्तियाँ हैं पृ० 366. प० 1 54031. विपर्यय-जो वस्तु जिस रूप में न हो, उसमें उस रूप का ज्ञान करना / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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