________________ टिप्पणियाँ 187 108 पं० 1 2. अहंप्रत्यय--अहंप्रत्यय द्वारा आत्मा की सिद्धि करने की पद्धति अति-प्राचीन है / न्याय-भाष्य (3.1.15) में भी कालिक अहंप्रत्यय के प्रतिसंधान के आधार पर प्राचार्य जिनभद्र के समान ही प्रात्म-सिद्धि की गई है। प्रशस्तपाद भाष्य (पृ० 360) में तथा न्यायमंजरी (पृ० 429) में भी अहंप्रत्यय को आत्म-विषयक बताया गया है। न्यायवार्तिक (पृ० 341) में तो अहंप्रत्यय को प्रत्यक्ष कहा है। 108 पं०15. अहंप्रत्यय देह विषयक नहीं है -- इसके लिए न्यायसूत्र की प्रात्म-परीक्षा (3.1.1.) तथा प्रशस्तपाद भाष्य का प्रात्म-प्रकरण (पृ. 360) देखें / विशेष के लिए प्रात्मतत्वविवेक (पृ० 366) तया न्यायावतारवातिक की तुलनात्मक टिप्पणी पृ० 2:6-208 देखें / पृ०8 पं.2 . संशयकर्ता जीव ही है-प्राचार्य जिनभद्र की इन गाथानों में दी गई युक्तियों के साथ प्राचार्य शंकर की उक्ति की तुलना करने योग्य है। प्राचार्य शंकर ने कहा है कि, सभी लोगों को प्रात्मा के अस्तित्व की प्रतीति है, 'मैं नहीं हैं' ऐसी प्रतीति किसी को नहीं होती / यदि लोगों को अपना अस्तित्व अज्ञात हो तो उन्हें यह प्रतीति होनी चाहिए कि 'मैं नहीं हूँ'--ब्रह्मसूत्र शंकर-भाष्य 1.1.1. पृ०9 पं०4. अननुरूप-इस युक्ति के साथ न्यायसूत्र (3.2.54) की युक्ति की तुलना करने योग्य है / उसमें कहा है कि, शरीर के गुणों में तथा प्रात्मा के गुणों में वैधर्म्य है। पृ०9 पं०4. गुण-गुणी भाव-यह इस का गुण है और यह इसका गुणी है, ऐसी व्यवस्था। पृ०9 पं०13. पक्ष-साध्य--जिसे सिद्ध करना हो उस धर्म से जो विशिष्ट हो उसे पक्ष कहते हैं / अथवा उस साव्य को भी पक्ष कहते हैं। उसकी प्रतीति पहले से ही नहीं होनी चाहिए, पथात् वह पहले से ही ज्ञात न होना चाहिए। दूसरे शब्दों में जिस विषय में सन्देह विपरीत ज्ञान अथवा अनध्यवसाय हो वह साध्य बनता है / जो प्रत्यक्ष प्रादि प्रमाणों से बाधित न हो, वही साध्य हो सकता है। पुन: जो हमें अनिष्ट हो, वह भी साध्य नहीं हो सकता / देखें --प्रमाणनयतत्वालोक 3.14-17. पृ०9 पं० 13. पक्षाभास-पक्ष के उक्त लक्षण से जो विपरीत हो उसे पक्षाभास कहते हैं। विशेष विवरण के लिये देखें-प्रमाणमीमांसा भा० टि० पृ० 88. पृ०१ पं026. स्वाभ्युपगम-जो हमें स्वीकार हो / पृ०10 पं07. विपक्षवृत्ति - जिसका साध्य में प्रभाव हो उसे विपक्ष कहते हैं। उसमें जो हेतु हो वह विपक्षवृत्ति कहलाता है / प०10 पं०11. गुणों के प्रत्यक्ष से प्रात्मा का प्रत्यक्ष-प्रशस्तपाद (पृ० 553) ने बुद्धि (सुखादि प्रात्म) गुणों का प्रत्यक्ष प्रात्मा और मन के सन्निकर्ष से माना है। किन्तु जिसके गुण प्रत्यक्ष हो और वह वस्तु भी प्रत्यक्ष हो यह नियम प्रशस्तपाद को मान्य नहीं है। कारण यह है कि उसके मतानुसार आकाश का गुण शब्द और वायु का गुण स्पर्श प्रत्यक्ष होने पर भी आकाश व वायु अप्रत्यक्ष हैं - (पृ० 508, 249); अतः प्राचार्य जिन भद्र ने गुणगणी के भेदाभेद की चर्चा की है और अपना मन्तव्य सिद्ध किया है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org