________________ 136 गणधरवाद को इस अवतरण का वही अर्थ मान्य है जो प्रस्तुत में किया गया है। उनका कथन है कि धर्म तथा प्रधकृत सुख और दुःख संसारी जीव के होते हैं किन्तु मुक्त के नहीं। मुक्त को निरतिशय सुख (ग्रानन्द) की प्राप्ति होती है। नैयायिकों को भी इस अवतरण का यही अर्थ इष्ट हैन्यायमञ्जरी पृ० 509. पृ०6 पं07. स्वर्ग का इच्छुक-इसका मूल मुद्रित प्रति के अनुसार मैत्रायणी उपनिषद् में नहीं किन्तु मैत्रायणी संहिता (1.8.7.) में है / प्रस्तुत मे 'उपनिषद् महावाक्य कोष' के अाधार पर उल्लेख किया गया है। यह वाक्य तैत्तिरीय ब्राह्मण में भी है-2.1, तथा तैत्तिरीय संहिता में भी-- 1.5.9.1. पृ०6 पं0 7. अग्निहोत्र -- एक प्रकार का यज्ञ / पृ०6 404. प्रात्मा अकर्ता- सांख्य-सम्मत पुरुष-निरूपण के लिए सांख्यका० 17-19 देखें। पृ०7 पं०6. जीव प्रत्यक्ष है -जीव तथा ज्ञान का अभेद मान कर यहाँ जीव को प्रत्यक्ष कह है, क्योंकि ज्ञान प्रत्यक्ष है / इस विषय में दार्शनिकों के विविध मत हैं। नयायिक-वैशेषिक ज्ञान और जीव का भेद मानते हैं। उनके मतानुसार ज्ञान का प्रत्यक्ष होने पर भी प्रात्मा का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। सांख्ययोग मत में भी ज्ञान और पुरुष का भेद है, अर्थात् यह सम्भव है कि ज्ञान का प्रत्यक्ष होने पर भी पुरुष अप्रत्यक्ष रहे / वेदान्त में प्रात्मा को चिन्मय अर्थात् विज्ञानमय माना गया है, अतः विज्ञान का प्रत्यक्ष यही प्रात्मा का भी प्रत्यक्ष है। गुण-गुणी का भेद मान कर भी न्यायमंजरीकार जयन्त ने प्रात्म-प्रत्यक्ष सिद्ध किया है - न्यायमंजरी पृ० 433. ज्ञान के प्रत्यक्ष के विषय में भी दार्शनिकों में ऐकमत्य नहीं है। जैन, बौद्ध, प्रभाकर, वेदान्त-दर्शन ज्ञान को स्वप्रकाश (स्वसंविदित) स्वप्रत्यक्ष मानते हैं, अर्थात् उनकी मान्यतानुसार ज्ञान स्वयमेव अपना प्रत्यक्ष करता है, ज्ञान का ज्ञान करने के लिए अन्य किसी ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। इसके विपरीत नैयायिक-वैशेषिक ज्ञान को स्वप्रत्यक्ष नहीं मानते, किन्तु एक ज्ञान का दूसरे ज्ञान से प्रत्यक्ष मानते हैं। सांख्ययोग मत में पुरुष द्वारा सभी बद्धिवृत्तियाँ सित होती हैं। किन्तु कुमारिल और उसके अनुयायी तो ज्ञान को परोक्ष ही मानते हैं, अर्थात् वे अनुमान व अर्थापत्ति से ज्ञान का अस्तित्व सिद्ध करते हैं / उनके मत में ज्ञान का प्रत्यक्ष है ही नहीं / इस विषय में विशेष विवरण के लिये देखें--प्रमाणमीमांसा टि० प्र० 13. 107 पं०10. स्वसंवेदन-स्व का ज्ञान स्वयमेव ही करना स्वसंवेदन है। यह भी प्रत्यक्ष ज्ञान का ही एक प्रकार है। पृ०7 पं० 10. स्वसंविदित--जिसका ज्ञान स्वयमेव हुअा हो वह स्वसं विदित है ! पृ०7 पं०15. प्रत्यक्षतर-प्रत्यक्ष से इतर अर्थात् भिन्न अनुमानादि / पृ०7 पं० 24. बाधक-किसी भी वस्तु के विरोध में जो प्रमाण उपस्थित किया जाता है उसे बाधक प्रमाण कहते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org