________________ टिप्पणियाँ 185 लेता है तब कार्य-कारण विषयाकार में परिणत नाम-रूपात्मक भूत भी जल में फेन व बुद्बुद् के समान नष्ट हो जाते हैं तथा तदनन्तर मर्त्य भी परमात्मा में लीन हो जाता है। केवल अनन्त अपार प्रज्ञानघन विद्यमान रहता है / इस अवस्था में जीव की कोई विशेष संज्ञा नहीं रहती है। कारण यह है कि 'मैं प्रमुक हूँ तथा अमुक का पुत्र पिता आदि हूँ' ये संज्ञाए अविद्याकृत हैं और अविद्या का समूल नाश हो चुका है। अद्वैतवादी शंकराचार्य ने उक्त अवतरण का इस प्रकार यह अर्थ किया है। उनके मत में भूत प्राविद्यक होने के कारण मायिक हैं। अपि च, उन्होंने परम महान् भूत का अर्थ परमात्मा या ब्रह्म किया है। नाश का अर्थ सर्वथा अभाव नहीं, किन्तु स्वयोनिरूप में विलीन हो जाना किया है। इसके अतिरिक्त 'विज्ञानघन' शब्द से नवीन वाक्य का प्रारम्भ नहीं किया, किन्तु वह पूर्व वाक्य का उपांत्य पद है; जबकि प्रस्तुत अवतरण में इसी पद से वाक्य शुरू होता है। शंकर के मत में जीव विज्ञानघन से उत्पन्न होकर उसी में लीन हो जाता है, ऐसा अर्थ है। जबकि प्रस्तुत अवतरण में इन्द्रभूति के विचारानुसार भूतों से विज्ञानघन उत्पन्न होता है और भूतों के नाश के पश्चात् उसका भी नाश हो जाता है / नैयायिक लोग उपनिषद् के इस वाक्य को पूर्वपक्ष के रूप में समझते हैं और उसका अर्थ वही करते हैं जो इन्द्रभूति ने किया है "यद्विज्ञानधनादिवेदवचनं तत् पूर्वपक्षे स्थितम् / / पौर्वापर्यविमर्शशून्यहृदयैः सोऽर्थो गृहीतस्तदा / / न्यायमञ्जरी पृ० 472 पृ०5 पं023. भूत-पृथ्वी, जल, अग्नि (तेज) और वायु ये चार अथवा पृथ्वी, जल; तेज, वायु तथा आकाश ये पाँच भूत माने गए हैं / पृ०6 पं०1. रूप-पृथ्वी, जल, तेज, वायु ये चार महाभूत तथा इनके कारण जो कुछ है वह सब बौद्ध मत में रूप कहलाता है / अभिधम्म संग्रह परिच्छेद 6 देखें / पृ०6 पं० 1. पुद्गल -जैन तथा अन्य दार्शनिक जिसे जीव कहते हैं उसे बौद्ध पुद्गल कहते हैं। कथावस्तु 1.156 पृष्ठ 26; मिलिन्द प्रश्न पृ० 27,95,304 आदि देखें; तथा पुग्गलपजत्ति जिसमें जीवों के विविध रूप से भेद पुद्गल के नाम से किए गए हैं भी देखें / तत्वार्थ० 5.23. जैन मत में पुद्गल का सामान्य अर्थ जड़ परमाणु पदार्थ है, किन्तु भगवती में (8.3.20.2) पुद्गल शब्द जीव के अर्थ में भी प्रयुक्त है। पृ०6 पं04. सशरीर प्रात्मा--इस अवतरण का छांदोग्य उपनिषद् में जो पाठ है वह सम्पूर्ण सन्दर्भ सहित यह है-'मघवन्मत्यं वा इदं शरीरमात्त मृत्युना तदस्याशरीरस्याऽऽत्मनोऽधिष्ठानमात्तो वै सशरीरः प्रियाभ्यां न वै सशरीरस्य सतः प्रियाप्रिययोरपहतिरस्त्यशरीरं वाव सन्तं न प्रियाप्रिये स्पृशतः / " 8 12.1. इसमें 'वाव सन्त' यह पदच्छेद प्राचार्य जिनभद्र के सन्मुख भी था। गाथा 2020 देखें / इस अवतरण के जिनभद्र सम्मत अर्थ के लिए गा० 2015-2023 देखें। प्राचार्य शंकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org