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________________ 184 गणधरवाद पृ०4 पं027. प्रागम - शास्त्र के वचन को आगम कहते हैं / मीमांसक मानते हैं कि आगम गौरुषेय हैं प्रात् वे किसी पुरुष द्वारा कथित नहीं हैं। नैयायिकादि उसे ईश्वरकृत मानते हैं तथा जैन व बौद्ध उसे वीतराग पुरुष द्वारा प्रणीत मानते हैं / पृ० 4 पं0 27. प्रागम-प्रमाण अनुमान से पृथक नही है-इस मत का समर्थन प्रशस्त पाद (पृ. 576) ने किया है तथा दिग्नाग आदि बौद्ध विद्वानों ने भी यही कहा है-प्रमाणवार्तिक-स्वोपज्ञवृत्ति पृ० 416; हेतुबिन्दु टीका पृ० 2-4; न्यायसूत्र में पूर्वपक्ष के रूप में है-2 1. 49-51. . __ पृ०4 पं०30. दृष्टार्थ विषयक प्रागम-प्रागम के दो भेदों के लिए न्याय सू० 1.1 8. देखें / पृ० 5 पं०11. अविसंवादी-विसंवाद अर्थात् पूर्वापर विरोध / जिसमें यह विरोध न हो उसे अविसंवादी कहते हैं / पृ०5 पं०12. प्राप्त--जिसका वचन प्रमाण रूप माना जाए उसे प्राप्त कहते हैं। माता-पिता आदि लौकिक प्राप्त हैं तथा रागद्वेष से रहित पुरुष अलौकिक प्राप्त है / पु० 5 पं० 22 विज्ञानधन- यहाँ पर उद्धृत किए गए पाठ का पूरा सन्दर्भ यह है--"स यथा सैन्धवखिल्य उदके प्राप्त उदकमेवानु विलीयेत न हास्योद्ग्रहणायैव स्यात् / यतो यतस्त्वाददीत लवणमेवैवं वा अर इदं महद्भूतमनन्तमपारं विज्ञानघन एव एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्तीत्यरे ब्रवीमीति होवाच याज्ञवल्क्यः / वृहदारण्यकोपनिषद् 2.4.12. उक्त अवतरण में पदच्छेद शांकर-भाष्य के अनुसार किया गया है। उसी भाष्य के अनुसार इसका भावार्थ यह है-जैसे नमक का एक टकड़ा पानी में डाला जाए तो वह पानी में विलीन हो जाता है --नमक पानी का ही एक विकार है, भूमि तथा तेज के सम्पर्क से जल नम 5 रूप में परिणत हो जाता है / किन्तु इसी नमक को जब उसकी योनि (जल) में डाला जाता है तब उसका अन्य सम्पर्क-जन्य काठिन्य नष्ट हो जाता है। इसी को नमक का पानी में विलय कहते हैं। विलय होने के पश्चात् कोई व्यक्ति नमक के टुकड़े को पकड़ नहीं सकता, किन्तु पानी किसी भी जगह से लिया जाए वह खारा ही होगा। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि नमक के टुकड़े का सर्वथा अभाव नहीं हुग्रा, किन्तु वह पानी में मिल गया, अपने मूल रूप में आ गया, अब वह टुकड़े के रूप में नहीं है। इसी प्रकार है मैत्रेयी ! यह महान् भूत है (परमात्मा है) वह अनन्त है, अपार है। इसी महान भत से अर्थात परमात्मा से अविद्या तुम पानी में से नमक के टुकड़े के समान मर्त्यरूप वन गई हो, किन्तु जब तुम्हारे इस मर्त्यरूर का विलय अनन्त एवं अपार महान् भूत परमात्मा विज्ञानघन में हो जाता है तब केवल यही एक अनन्त और अपार महान् भूत रह जाता है, अन्य कुछ नहीं रहता। किन्तु परमात्मा मर्त्य भाव को कैसे प्राप्त करता है? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि, जैसे स्वच्छ जल में फेन और बुबुद् हैं वैसे ही परमात्मा में कार्य, कारण, विषयाकार रूप में परिणत स्वरूप नाम और रूपात्मक भूत हैं। इन भूतों से पानी से नमक के टुकड़े के समान मर्त्य की उत्पत्ति सम्भव है। किन्तु शास्त्र. श्रवण द्वारा ब्रह्मविद्या की प्राप्ति कर जब मर्त्यजीव अपने ब्रह्मभाव (परमात्म भाव) को समझ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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