________________ टिप्पणियाँ 183 पृ०3 पं० 29. परमाणु--- इस कथन की तुलना ईश्वरकृष्ण के प्रकृति सम्बन्धी कथन से करें-- 'सौम्यात् तदनुलब्धि भावात् कार्यतस्तदुपलब्धेः' सा० का० 8. पृ०3 पं० 29. अनुमान प्रत्यक्ष पूर्वक होता है-न्यायसूत्र में कहा गया है कि अनुमान प्रत्यक्ष पूर्वक होता है-1.1.5 तथा उसके भाष्य में स्पष्टीकरण किया गया है कि प्रस्तुत में लिंग और लिगी के सम्बन्ध तथा दर्शन लिंग इनको प्रत्यक्ष समझना / लिंगलिंगी के सम्बन्ध का प्रत्यक्ष हुमा हो तो भविष्य में स्मरण होता है। इस स्मरण-सहकृत लिंग के प्रत्यक्ष होने पर परोक्ष अर्थ का अनुमान होता है / आचार्य जिनभद्र ने यहाँ इसी बात का उल्लेख किया है। पृ०4 402. लिंग-साध्य के साथ जिस वस्तु का अविनाभाव सम्बन्ध हो, अर्थात् जो वस्तु साध्य के अभाव में कभी भी सम्भव न हो उसे लिंग अथवा साधन कहते हैं / इसी से यह अनुमान किया जाता है कि यदि लिंग उपस्थित हो तो साध्य वस्तु अवश्यमेव होनी चाहिए। 10 4 पं०3. लिंगी--- अर्थात् साध्य / जिस वस्तु को साधन या लिंग द्वारा सिद्ध किया जाए उसे साध्य कहते हैं। __ पृ०4 पं04. अविनाभाव---अर्थात् व्याप्ति / इसका शब्दार्थ यह है कि उसके बिना न होना / साधन का साध्य के बिना न होना यह उसका अविनाभाव है / इसी सम्बन्ध के कारण ही जहाँ साधन होता है वहाँ साध्य का अनुमान किया जा सकता है / कुछ पदार्थों में सहभाव का नियम होता है और कुछ में क्रमभाव का। जहाँ सहभाव होता है वहाँ दोनों एक काल में रहते हैं और जहाँ क्रमभाव होता है वहाँ वे पदार्थ कालक्रम में नियत होते हैं। इस प्रकार अविनाभाव दोनों प्रकार का हो सकता है-सहभावी तथा क्रमभावी / देखें प्रमाणमीमांसा 1.2.10. पृ० 4 पं० 5. स्मरण –अर्थात् स्मृति / वस्तु का अनुभव होने के बाद वह अनुभव संस्कार रूप में स्थिर रहता है। इस संस्कार का जब किसी निमित्त के कारण प्रबोध होता है अर्थात् जब वह सस्कार जागता है तब जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे स्मृति या स्मरण कहते है। पृ०4 010. सूर्य की गति -- सर्वथा अप्रत्यक्ष होकर भी जो अनुमान-गम्य है, उसके उदाहरण के रूप में सूर्य की गति का उल्लेख प्राचीन काल से किया जाता रहा है। बौद्धों के उपायहृदय में, न्याय-भाष्य में तथा शाबर-भाष्य में यह उपलब्ध है, किन्तु न्यायवार्तिककार (पृ० 47) ने इस का विरोध किया है / इस विरोध को दृष्टि सन्मुख रख कर ही इस गाथा का पूर्वपक्ष दिया गया है। पृ०4 पं० 1 6. सामान्यतोदृष्ट अनुमान--वस्तु के दो रूप हैं-सामान्य तथा विशेष / साध्य वस्तु के सामान्य तथा विशेष दोनों रूप नहीं, किन्तु किसी समय केवल सामान्य रूप ही दृष्ट (प्रत्यक्ष) हो तो वैसी वस्तु जिसमें साध्य हो, उस अनुमान को सामान्यतोदृष्ट अनुमान कहते हैं / इस से विपरीत, पूर्ववत् तथा शेषवत् अनुमान में साध्य वस्तु के कभी दोनों रूप ही , त्यक्ष होते हैं। अनुमान के उक्त तीन प्रकार के इतिहास के विषय में प्रमाणमीमांसा टिप्पणी पृ० 139 तथा न्यायावतार-वार्तिक-वृत्ति प्रस्तावना पृ० 71 व सांख्य कारिका 6 देखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org