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________________ 182 गणधरवाद प्राचार्य प्रत्यक्ष व अनुमान ये दो प्रमाण मानते हैं / साधन (हेतु) लिंग द्वारा साध्य का ज्ञान करना अनुमान है। जैसे कि दूर से पटरी पर धुमां देख कर गाड़ी के आने का ज्ञान करना अनुमान है। सांख्य, कुछ वैशेषिक तथा प्राचीन बौद्ध तीन प्रमाण मानते हैं ---प्रत्यक्ष, अनुमान तथा प्रागम / प्राप्त पुरुष के वचन अथवा शास्त्र को प्रागम कहते हैं। नैयायिका तथा प्राचीन जैनागमों ने इन तीन प्रमाणों के अतिरिक्त उपमान को भी प्रमाण माना है। सादृश्य से ज्ञान करने को उपमान कहते हैं। जैसे कि गवय (रोझ) गाय के समान होता है। प्रभाकर प्रादि मीमांसक पूर्वोक्त प्रमाणों के अतिरिक्त अर्थापत्ति को तथा कुमारिल प्रादि मीमांसक अर्थापत्ति और प्रभाव को प्रमाण मानते हैं। कुछ लोग अर्थापत्ति का अर्थ यह करते हैं कि एक प्रमाण सिद्ध अर्थ की उपस्थिति के आधार पर अन्य परोक्ष अर्थ की कल्पना की जाए। जैसे कि देवदत्त मोटा है, परन्तु वह दिन के समय भोजन नहीं करता। इस आधार पर उसके रात्रि भोजन की कल्पना करना अर्थापत्ति है / मीमांसकों का कथन है कि अनुमान में दृष्टान्त होता है, किन्तु अापत्ति में नहीं। मीमांसक यह भी मानते हैं कि जहाँ पूर्वोक्त प्रत्यक्षादि पाँचों प्रमाणों की उत्पत्ति न हो वहाँ अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति होती है। घटादि वस्तु के ज्ञान के अभाव को प्रभाव प्रमाण कहते हैं अथवा घटादि से भिन्न भूतल आदि वस्तु के ज्ञान को। अर्थात् केवल भूतल का ज्ञान होने से प्रमाता समझे कि यहाँ घड़ा नहीं है। जैन दार्शनिकों ने केवल दो प्रमाण माने हैं- प्रत्यक्ष तथा परोल / अनुमानादि सभी प्रत्येक्षतर प्रमाणों का समावेश परोक्ष में होता है / पृ. 3 पं० / 5. जीव प्रत्यक्ष नहीं-- 'अात्मा प्रत्यक्ष नहीं है' यह मत के बल चार्वाकों का ही नहीं है अपितु प्राचीन नैयायिक तथा वैशेषिक भी ग्रात्मा को अप्रत्यक्ष मानते थे। यही कारण है कि न्यायसून (11.10) में इच्छा, द्वेषादि को प्रात्मा के लिंग कहे गये हैं। उसके उत्थान में भाष्यकार ने स्पष्टतः कहा है कि प्रात्मा प्रत्यक्ष नहीं है किन्तु उसका ज्ञान प्रागम के अतिरिक्त अनुमान से भी हो सकता है। वैशेषिक दर्शन के प्रसिद्ध भाष्यकार प्रशस्तपाद ने भी प्रात्मनिरूपण के प्रसंग में (भाष्य पृ० 360) कहा है कि, ग्रात्मा सूक्ष्म होने के कारण अप्रत्यक्ष है, किन्तु उसका कारण द्वारा अनुमान किया जा सकता है। ऐसा होने पर भी प्राचीन नैयायिकवैशेषिकों ने योगिज्ञान द्वारा आत्मा को प्रत्यक्ष ही माना है / / अर्थात् आत्मा साधारण मनुष्य को प्रत्यक्ष नहीं है किन्तु योगियों को प्रत्यक्ष है। तर्क के क्षेत्र में योगिप्रत्यक्ष तथा प्रागम में भेद नहीं रहता, अतः नैयायिक वैशेषिकों ने प्रात्मा को अनुमान से सिद्ध करना उचित समझा। किन्तु तर्क के विकास ने आगे जाकर यह सिद्ध किया कि प्रात्मा साधारण मनुष्य को भी प्रत्यक्ष है तथा चार्वाकों को छोड़ कर सभी दार्शनिक यह मानने लगे कि अहंप्रत्यय के आधार से प्रात्मा प्रत्यक्ष है / विशेष विवरण के लिए देखें-प्रमाणमीमांसा टि० पृ० 136. 1. न्यायभाष्य 1.1.3; वैशेषिक सूत्र 9.1.11. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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