________________ प्रभास ] निर्वाण-चर्चा 179 मुक्त पुरुष बीत राग होता है, अतः पुण्यजनित सुख उसके लिए प्रिय नहीं होता / वह वोतद्वष भी होता है, फलतः पापजनित दुःख उसके लिए अप्रिय नहीं होता। इस प्रकार उसमें प्रियाप्रिय दोनों का ही अभाव है। किन्तु मुक्त पुरुष में जो सुख स्वाभाविक है, अकर्मजन्य है, निरुपम है, निष्प्रतिकार रूप है, अनन्त है और इसलिए जो पूर्वोक्त पुण्यजन्य सुख से अत्यन्त विलक्षण है, उसका अभाव उक्त वेद-वाक्य से फलित नहीं होता। अतः तुम्हें यह स्वीकार करना चाहिए कि मोक्ष है, मोक्ष में जीव है और उसे सुख भी है / ये तोनों बातें वेदसम्मत भी हैं। प्रभास--अब केवल एक शंका और है। वह यह है कि यदि वेद को उक्त तीनों बातें इष्ट हैं तो फिर यह विधान क्यों किया गया कि 'जरामय वैतत् सर्व यदग्निहोत्रम्" - वृद्धावस्था में मरणपर्यन्त भी स्वर्गदायक अग्निहोत्र करना चाहिए / इससे तो केवल स्वर्ग की प्राप्ति हो सकेगी, मोक्ष की आशा केवल दुराशा रहेगी। अतः मन में यह विचार होता है कि मोक्ष की सत्ता ही नहीं होगी, अन्यथा वेद में मोक्षोपाय का अनुष्ठान करने का विधान न कर स्वर्गोपाय का विधान ही क्यों किया जाता? भगवान..- तुम इस वेद-वाक्य का अर्थ भी ठीक नहीं समझे। इस वाक्य में 'वा' शब्द भी है, उस अोर तुमने ध्यान नहीं दिया। यह 'वा' शब्द सूचित करता है कि यावज्जीवन अग्निहोत्र का अनुष्ठान करना चाहिए तथा साथ ही मोक्षाभिलाषी जीव को मोक्ष के निमित्तभूत अनुष्ठान भी करने चाहिएँ। इस प्रकार युक्ति से तथा वंद-पदों से मोक्ष सिद्ध होता है। तुम्हें इस विषय में संशय नहीं करना चाहिए। [2022-23] जरा-मरण से रहित भगवान् ने जब इस प्रकार उसके संशय का निवारण किया तब प्रभास ने अपने 300 शिष्यों के साथ दीक्षा अंगीकार की। [2024] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org