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________________ 178 सगधरवाद [ गणधर समस्त वाक्यांश का अर्थ होगा --- हे शिष्य ! तुम यह समझो कि मुक्ति अवस्था में 'अशरीरम' रूप 'सन्तम' विद्यमान जीव को अथवा 'सन्तम' ज्ञानादि से विशिष्ट-. रूपेण विद्यमान जीव को प्रियाप्रिय का स्पर्श नहीं होता। [2020] प्रभास-आपने स्नेष्ट अर्थों को प्रतिपादित करने के लिए उक्त वेद-वाक्य का अनेक प्रकार से पदच्छेद किया, किन्तु इसका पदच्छेद ऐसे ढंग से भी हो सकता है जिससे मेरे मत की पुष्टि हो। जैसे कि 'अशरीरं वा अवसन्तम्' इसका अर्थ यह होगा कि ऐसा अशरीरी जो कहीं भी नहीं रहता अर्थात् जो सर्वथा है ही नहीं। इस पदच्छेद से इस मत को पुष्टि होती है कि मुक्तावस्था में जीव का सर्वथा नाश हो जाता है। भगवान--तुम्हारे द्वारा किया गया पदच्छेद असंगत है। कारण यह है कि मैं पहले बता चुका हूँ कि 'अशरीर' शब्द से जीव की विद्यमानता सिद्ध होती है / अतः ऐसा पदच्छेद नहीं हो सकता जो इस शब्द के अर्थ के साथ संगत न हो। फिर उक्त वाक्य में आगे जाकर कहा गया है कि 'प्रियाप्रिय का स्पर्श नहीं होता' / स्पर्श की बात तभी घटित हो सकती है जब जीव को सत् या विद्यमान माना जाए। यदि जीव वन्ध्यापुत्र के समान सर्वथा असत् हो तो जैसे यह कहना निरर्थक है कि "वन्ध्यापुत्र को प्रियाप्रिय किसी का भी अनुभव नहीं होता' वैसे ही यह कहना भी व्यर्थ होगा कि अशरीर को प्रियाप्रिय का स्पर्श नहीं होता। जिसमें कभी प्रियाप्रिय की प्राप्ति होती हो अथवा ऐसो प्राप्ति सम्भव हो उसी में उसका निषेध किया जा सकता है; जो जिसमें सम्भव ही न हो उसका निषेध नहीं किया जाता। जीव में सशरीरावस्था में प्रियाप्रिय की प्राप्ति होती है, अतः मुक्तावस्था में उनका निषेध युक्तियुक्त है। 'अशरीर' शब्द से मुक्तावस्था में विद्यमान स्वरूप जीव का ज्ञान होता है। अत: 'अवसन्तम्' पदच्छेद नहीं हो सकता। [2021] प्रभास—यह बात वेदाभिमत भी है कि मुक्तावस्था में जीव विद्यमान होता है। अतः चाहे उसकी सत्ता मान ली जाए, परन्तु वेद के उक्त वाक्य में यह भी कहा है कि मुक्त जीव को प्रियाप्रिय दोनों का ही स्पर्श नहीं होता। अतः वेद में आपके इस मत का विरोध है कि मुक्त जीव को परम सुख प्राप्त होता है। मुक्त को हम सुखी या दुःखी नहीं मान सकते / भगवान --यह बात तो मैं भी स्वीकार करता हूँ कि मुक्त में पुण्यकृत सुख और पापकृत दुःख नहीं है / वेद में जिस प्रियाप्रिय का निषेध है वह उस सांसारिक सुख और दुःख का है जो पुण्य व पाप से होते हैं / ये सांसारिक सुख-दुःख वीतराग तथा वीतदोष मुक्त पुरुष का स्पर्श नहीं कर सकते क्योंकि वे पूर्ण ज्ञानी हैं और उनमें कोई भी बाधा नहीं है। वेद में यही बात कही गई है। इससे यह कैसे फलित हो सकता है कि मुक्त में स्वाभाविक निरुपम विषयातीत सुख का भी अभाव है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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