________________ प्रभास निर्वाण-चर्चा 175 भगवान्-यदि ज्ञान व सुख का सिद्ध में नाश होता हो तो उन्हें अनित्य माना जा सकता है। ज्ञान का नाश ज्ञानावरण के उदय से होता है तथा सुख का नाश असात वेदनीयादि के उदय से होने वाली बाधा से होता है, किन्तु सिद्ध में सहज ज्ञान तथा सुख के नाश के उक्त दोनों कारणों का अभाव है, अतः उनका नाश नहीं होता; फिर उन्हें अनित्य कैसे माना जाए ? यह नियम भी ठीक नहीं है कि जो चेतन-धर्म हो उसे रागादि के समान अनित्य ही होना चाहिए, क्योंकि द्रव्यत्व, अमूर्तत्व आदि चेतन-धर्म होने पर भी वे नित्य हैं। तुम्हारा यह कथन भी असंगत है कि कृतक होने से तथा अपूर्व उत्पन्न होने से सिद्ध के ज्ञान व सुख अनित्य हैं / प्रध्वंसाभाव कृतक है और अपूर्व उत्पन्न होता है, परन्तु वह अनित्य न होकर नित्य है। इसके अतिरिक्त सिद्ध के ज्ञान व सुख स्वाभाविक हैं, अतः उन्हें कृतकादि रूप नहीं माना जा सकता; इसलिए ये हेतु ही प्रसिद्ध हैं / प्रावरण के कारण उनका जो तिरोभाव था वह प्राव रण के दूर हो जाने से निवृत्त हो जाता है। फिर यह कैसे कह सकते हैं कि ज्ञान और सुख सर्वथा नवीन उत्पन्न हुए हैं। बादलों से ढका हुआ सूर्य बादलों के हट जाने से उसके प्रकट होने पर कृतक अथवा अपूर्वोत्पन्न नहीं कहलाता, वैसे ही आवरण और बाधा का अभाव होने पर सिद्ध के स्वाभाविक ज्ञान व सुख प्रकट होते हैं; उन्हें कृतक या अपूर्वोत्पन्न नहीं कह सकते। सुख व ज्ञान अनित्य भी हैं अपि च, मैं तो सभी पदार्थों को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त मानता हूँ, अर्थात् नित्यानित्य मानता हूँ / अतः मेरे मत में ज्ञान व सुख नित्य भी हैं और अनित्य भी। यदि तुम आविर्भाव रूप विशिष्ट पर्याय की अपेक्षा से सुख और ज्ञान को कृतक होने से अनित्य मानों तो यह बात युक्त ही है। प्रत्येक क्षण में पर्याय रूप से ज्ञेय का विनाश होने के कारण ज्ञान का भी नाश होता है तथा सुख का भी प्रत्येक क्षण नवीन परिणाम उत्पन्न होता है। इस आधार पर ज्ञान और सुख को यदि तुम अनित्य मानो तो इसमें कोई नवीनता नहीं है। इस तरह तुम उसी बात को सिद्ध करते हो जो मुझे भी इष्ट है / [2013-14] प्रभास-आपकी युक्तियों से मैं यह तो समझ गया हूँ कि निर्वाण है, उसमें जीव विद्यमान रहता है तथा निर्वाणावस्था में जीव को निरुपम सुख की प्राप्ति होती है, किन्तु इस बात को वेद के आधार पर कैसे सिद्ध किया जाए और वेदवाक्यों की असंगति कैसे दूर हो ? कृपा कर यह भी आप बताएँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org