SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 174 मणधरवाद / गणघर प्रभास-किन्तु देह के बिना सुख की उपलब्धि नहीं होती, देह ही सुख का प्राधार है। सिद्ध में देह नहीं होतो, अतः उसे सुख का अनुभव नहीं हो सकता / आपने मेरो इस आपत्ति का अब तक उत्तर नहीं दिया है। देह के बिना भी सुख का अनुभव भगवान् --मैं तुम्हें समझा चुका हूँ कि लोकरूढि से तुम जिस पुण्य के फल को सात (सुख) समझ रहे हो वह वस्तुतः दु:ख ही है। पाप का फल तो असात या दुःख है ही। अतः शरीर से जिसकी उपलब्धि होती है वह तो केवल दुःख ही है / संसार के अभाव में यह दुःख नहीं होता, अत: सच्चा सुख सिद्ध को ही मिलता है। अर्थात् यह बात फलित होती है कि शरोर-इन्द्रिय आदि साधनों से जो उपलब्ध होता है वह दुःख ही है तथा सुख की प्राप्ति के लिए शरीरादि का अभाव अावश्यक है। परिणामतः सिद्ध हो शरीर आदि के अभाव के कारण सुख को उपलब्धि कर सकते हैं। [2011] अथवा, तुमने जो आपत्ति उपस्थित की है वह एक अपेक्षा से ठो भो है / / जो लोग संसाराभिनन्दी अथवा मोहमूढ हैं वे परमार्थ को नहीं देख सकते, अतः उन्हें जो विषयजन्य सुख शरोरेन्द्रिय द्वारा उपलब्ध होता है, उसे ही वे सुख मान लेते हैं / उनके मतानुसार विषयातोत सुख सम्भव ही नहीं है क्योंकि उन्हें स्वप्न में भी ऐसे सुख का अनुभव नहीं होता। तुम्हारी यह अापत्ति कि, सिद्ध में शरीरेन्द्रिय के अभाव के कारण सुख भी नहीं होता, उक्त मत की अपेक्षा से घटित हो जाती है। किन्तु मैं तो सिद्ध के सुख को सांसारिक सुख को सोमा को पार करने वाला धर्मान्तर रूप अत्यन्त विलक्षण सुख मानता हूँ। उसके अनुभव के लिए सांसारिक सुख के अनुभव के पनात शरारादि को अपेक्षा हो नहीं है / [2012] प्रभास-अापके मानने से क्या होता है ? इसे प्रमाण से सिद्ध करना चाहिए। सिद्ध का सुख व ज्ञान नित्य है भगवान् ---मैं प्रमाण पहले ही बता चुका हूँ कि मुक्तात्मा में प्रकृष्ट सुख है, क्योंकि वह मुनि के समान प्रकृष्ट ज्ञानो होकर बाधा रहित है। प्रभास-सिद्ध के सुख व ज्ञान चेतन-धर्म होने के कारण रागादि के समान अनित्य होने चाहिएँ / इसके अतिरिक्त वे तपस्यादि से साध्य होने के कारण कृतक हैं, इसलिए भी वे घटादि के समान अनित्य होने चाहिएँ / अपूर्व-रूप में उत्पन्न होने के कारण भी वे अनित्य ही समझे जाने चाहिएँ किन्तु आप उन्हें नित्य मानते हैं, यह प्रयुक्त है। 1. गाथा 2007. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy