________________ प्रभास निर्वाण-चर्चा 173 संसर्ग से निरपेक्ष है। इसलिए मात्र व्याधि के प्रतिकार रूप में उत्पन्न होने वाले संसार के सुखों के समान मुक्त का सुख प्रतिकार रूप में नहीं, किन्तु निष्प्रतिकार रूप में उत्पन्न होता है। अतः वह मुख्य सुख है तथा प्रतिकार रूप सांसारिक सुख औपचारिक है / अर्थात् वस्तुतः वह दु:ख ही है / कहा भी है-. "जिसने मद तथा मदन पर विजय प्राप्त की है, जो मन-वचन-काय के समस्त विकारों से शून्य है, जो परवस्तु की आकांक्षा से रहित है, ऐसे संयमी महापुरुष के लिए यहीं मोक्ष है / " [2007] अथवा अन्य प्रकार से भी मुक्त में ज्ञान के समान सुख की सिद्धि हो सकती है। वह इस प्रकार होगी--जीव स्वभावतः अनन्त ज्ञानमय है, किन्तु उसके उस ज्ञान का मतिज्ञानावरणादि से उपधात होता है, जैसे बादल सूर्य के प्रकाश का उपघात करते हैं। आवरण रूप बादलों में छिद्र हों तो वे सूर्य के प्रकाश के उपकारी बनते हैं, उसी प्रकार आत्मा के सहज प्रकाश ज्ञान पर भी इन्द्रिय रूपी छिद्र अनुग्रह करते हैं, क्योंकि उन छिद्रों के द्वारा आत्मा का प्रकाश स्वल्प रूप में प्रकाशित होता है किन्तु ज्ञानावरण का सर्वथाभाव होने पर सूर्य के प्रकाश के समान ज्ञान अपने सम्पूर्ण शुद्ध रूप से प्रकाशित होता है। [2008] इसी प्रकार आत्मा स्वरूपतः स्वाभाविक अनन्त सुखमय भी है। उसके उस सुख का पाप-कर्म द्वारा उपघात होता है तथा पुण्य-कर्म उस सुख का अनुग्रह या उपकार करने वाला है, किन्तु जब सर्व कर्म का नाश हो जाता है तब प्रकृष्ट ज्ञान के समान सकल, परिपूर्ण, निरुपचरित तथा निरुपम स्वाभाविक अनन्त सुख सिद्ध में प्रकट होता है / [2006] प्रभास-संसार में सुख पुण्य-रूप कारण से उत्पन्न होता है, वह स्वाभाविक नहीं है। मोक्ष में पुण्य कर्म है ही नहीं / अतः कारण के अभाव से सख रूप कार्य का सिद्ध में अभाव ही मानना चाहिए। भगवान्---मैं ने सुख को स्वाभाविक सिद्ध किया है। फिर भी तुम्हारा उपर्युक्त बात पर आग्रह हो तो मैं कहूँगा कि तुम इस विषय में भी भूल करते हो। सकल कर्म का क्षय ही सिद्ध के सुख का कारण है, अतः तुम यह नहीं कह सकते कि इसमें कारण का अभाव। जैसे जीव सकल कर्मों के क्षय होने से सिद्धत्व परिणाम को प्राप्त करता है वैसे ही वह संसार में अनुपलब्ध तथा विषयजन्य सुख से सर्वथा विलक्षण निरुपम सुख सकल कर्म क्षय के कारण प्राप्त करता है / [2010] 1. निजितमदमदनानां वाक्का यमनोविकाररहितानाम् / विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम् / / प्रशमरति 238. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org