________________ प्रभास ] निर्वाण-चर्चा 171 से होता है। जो कर्म के उदय से सम्पन्न हो वह पुण्य के फल के समान सुख रूप ही होता है / पाप का फल भी कर्मोदयजन्य होने के कारण सुख रूप होना चाहिए। अपि च, पुण्य के फल का संवेदन जीव को अनुकूल प्रतीत होता है, अतः वह सुख रूप है। फिर भी आप उसे दुःख रूप कहते हैं। इससे आप की यह बात प्रत्यक्ष विरुद्ध भी है। जो बात स्वसंवेदन-प्रत्यक्ष से सुख रूप प्रतीत होती है उसे आप दुःख रूप मानते हैं, अतएव अापका कथन प्रत्यक्ष विरुद्ध होने के कारण अयुक्त है / [2004] ___ भगवान् -सौम्य ! तुम जिसे सुख का प्रत्यक्ष कहते हो वह अभ्रान्त अथवा यथार्थ प्रत्यक्ष नहीं है किन्तु भ्रान्त या अयथार्थ प्रत्यक्ष है। इसलिए मैं तुम्हारे द्वारा मान्य प्रत्यक्ष सुख को दुःख रूप बताता हूँ। इस में प्रत्यक्ष विरोध नहीं है। तुम जिसे प्रत्यक्ष सुख कहते हो वह सुख नहीं किन्तु दुःख ही है। सच्ची बात तो यह है कि संसार में ग्रस्त जीव को कहीं भी वास्तविक सुख नहीं मिल सकता / तुम जिसे सुख मानते हो वह व्याधि के प्रतिकार के समान है। किसी मनुष्य के दाद हो गया हो और मीठी खुजली होती हो, तो उसे खुजलाते हुए जिस सुख का अनुभव होता है वह वस्तुतः सुख न होकर सुखाभास अथवा दुःख है। अविवेक के कारण जीव सुखाभास को भी सुख समझ लेता है। सब जानते हैं कि खुजलाने से खुजली बढ़ती ही है, अतः जिसका परिणाम दुःख रूप हो उसे सुख न समझ कर दुःख ही मानना चाहिए। इसी प्रकार संसार के सभी पदार्थों के विषय में भी यह बात कही जा सकती है। मनुष्य में एक लालसा (प्रौत्सुक्य, वासना) होती है, उसकी तृप्ति या प्रतिकार के लिए वह काम-भोग भोगता है / वस्तुत: उसका भोग केवल लालसा का प्रतिकार ही है। उसमें यथार्थरूपेण दुःख होता है, किन्तु मूढ़तावश मनुष्य उसे सुख मान लेता है / इसीलिए जो सुख रूप नहीं है, वह अयथार्थतः सुख रूप प्रतीत होता है। जैसे कि “जो कामावेशी पुरुष होता है वह प्रेत के समान नग्न होकर शब्द करती हई उपस्थित स्त्री का आलिंगन कर अपने समस्त अंगों में अत्यन्त क्लान्ति प्राप्त करके भी मानो वह सुखो हो इस प्रकार मिथ्या रति (शान्ति, आराम) का अनुभव करता है।" राज्य में सुख है, यह बात भी मूढमति ही मानते हैं, किन्तु अनुभवी राजा का तो वचन है कि "जब तक व्यक्ति राजा नहीं बनता, तब तक ही उत्सुकता होती है, केवल इस उत्सुकता को हो पूर्ति राज्य को प्रतिष्ठा द्वारा होतो है। परन्त तदुपरान्त प्राप्त राज्य को सार-सम्भाल का विन्ता हो दुःख दिया करती है। इस 1. नग्नः प्रेत इवाविष्ट: क्वणन्तीमुपगृह्यताम् / गाढः यासित सर्वाङ्गः स सुखी रमते किल / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org