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________________ 170 गणधरवाद [ गणधर का अभाव हो जाए, अर्थात् यदि इन्द्रियाँ प्रकाश रूप होती तो उनके अभाव में आत्मा अज्ञानी बन जाती, किन्तु वस्तुतः इन्द्रियाँ प्रकाश रूप नहीं हैं, अतः उनके अभाव में आत्मा में ज्ञान का अभाव नहीं होता। [1966] जैसे प्रकाशमान प्रदीप को छिद्र युक्त आवरण से ढक देने पर वह अपना प्रकाश उन छिद्रों द्वारा फैलाने के कारण उसे किञ्चिन्मात्र ही फैला सकता है, वसे ही प्रकाश-स्वरूप प्रात्मा भी प्रावरणों का क्षयोपशम होने पर इन्द्रियरूप छिद्रों द्वारा अपना प्रकाश अत्यन्त अल्प हो फैला सकती है। [2000] किन्तु मुक्तात्मा में आवरणों का सर्वथा अभाव होता है, अतः वह अपने सम्पूर्ण रूप से प्रकाशित होती है / अर्थात् संसार में जो कुछ है, वह उसे जान सकती है-वह सर्वज्ञ बन जाती है। जैसे घर में बैठ कर खिड़की, दरवाजे से देखने वाला मनुष्य बहत कम देख सकता है, किन्तु घर का ध्वंस होने पर या घर से बाहर आने पर उसके ज्ञान का विस्तार अधिक हो जाता है, अथवा जैसे प्रदीप पर पड़े हुए छिद्र युक्त प्रावरण को दूर करने देने पर वह अपने पूर्ण रूप में प्रकाशित होता है, वैसे ही आत्मा भी अपने समस्त प्रावरणों के दूर हो जाने के कारण सम्पूर्ण रूपेण प्रकाशित होती है। इस प्रकार यह बात सिद्ध हो जाती है कि मुक्त अात्मा ज्ञानी है। [2001] प्रभास-पात्मा ज्ञान स्वरूप है अतः मुक्तात्मा सर्वज्ञ है, यह बात तो समझ में आ गई, किन्तु आप का यह कथन कि मुक्तात्मा का सुख निराबाध होता है, युक्त नहीं है। कारण यह है कि पुण्य से सुख होता है और पाप से दुःख / मुक्तात्मा के सर्व कर्मों का नाश हो जाता है, अतः उसमें सुख-दुःख दोनों में से कुछ भी नहीं होता / इसलिए मुक्तात्मा में आकाश के समान सुख अथवा दुःख कुछ भी नहीं होना चाहिए। [2002] / अन्य प्रकार से भी मुक्तात्मा सुख-दुःख विहीन सिद्ध होती है। सुख या दुःख की उपलब्धि का आधार देह है, मुक्त में देह या इन्द्रियाँ कुछ भी नहीं होती, अतः उसमें भो अाकाश के सदृश सुख-दुःख का अभाव होना चाहिए / [2003] पुण्य के अभाव में भी मुक्त सुखी हैं, पुण्य का फल सुख नहीं है भगवान्-तुम पुण्य के फल को सुख कहते हो, यह तुम्हारा महान् भ्रम है / वस्तुतः पुण्य का फल भी दुःख ही है / कारण यह है कि वह कर्म के उदय से होता है, अर्थात् वह कर्म-जन्य है / जो कर्म-जन्य होता है वह पाप के फल के समान सुख नहीं हो सकता, केवल दुःख रूप होता है। प्रभासफिर तो पाप के फल के विषय में मैं भी विरोधी अनुमान उपस्थित कर सकता हूँ कि पाप का फल भी वस्तुतः सुख रूप ही है, क्योंकि वह कर्म के उदय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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