________________ प्रभास ] निर्वाण-चर्चा 169 अपि च, यह कहना विरुद्ध है कि मुक्तात्मा में ज्ञान का अभाव है। कारण यह है कि ज्ञान तो आत्मा का स्वरूप है। जैसे परमाणु कभी भी रूपादि से रहित नहीं होता, वैसे ही प्रात्मा भी ज्ञानरहित नहीं हो सकती। अतः यह कहना परस्पर विरुद्ध है कि 'आत्मा है' और 'वह ज्ञानरहित है।' स्वरूप के बिना स्वरूपवान् की स्थिति सम्भव नहीं है। मैं तुम्हें पहले ही यह समझा चुका हूँ कि जीव कभी भी विलक्षण जाति के परिणाम को प्राप्त नहीं करता। अर्थात् यदि जीव ज्ञान-रहित हो जाए तो वह जड़ बन जाएगा। जीव व जड़ परस्पर अत्यन्त विलक्षण जाति वाले द्रव्य हैं, अतः जीव कभी भी जड़ नहीं बन सकता। अर्थात् जीव में कभी भी ज्ञान का अभाव नहीं होता / [1967] प्रभास----आप यह कैसे कहते हैं कि ज्ञान प्रात्मा का स्वरूप है ? प्रात्मा ज्ञान स्वरूप है भगवान्—यह बात सब को स्वानुभव से ज्ञात है कि हमारी प्रात्मा ज्ञान स्वरूप है, अर्थात् स्वात्मा की ज्ञान-स्वरूपता स्वसंवेदंन प्रत्यक्ष से सिद्ध ही है / हमारा यह अनुभव है कि इन्द्रियों का व्यापार बन्द हो जाने पर भी प्रात्मा इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध पदार्थों का स्मरण कर सकती है तथा इन्द्रिय-व्यापार की उपस्थिति में भी अन्यमनस्कता के कारण उसे ज्ञान नहीं होता। इसके अतिरिक्त कभी-कभी आँखों से अदृष्ट तथा कानों से अश्रुत अर्थ का भी स्फुरण हो जाता है। इन सब कारणों के अाधार पर हम यह निर्णय कर ही लेते हैं कि हमारी प्रात्मा ज्ञान स्वरूप है। तुम्हें भी यह अनुभव होता ही होगा। अतः आश्चर्य है कि तुम आत्मा की ज्ञान-स्वरूपता में सन्देह करते हो। जैसे हमारी आत्मा ज्ञान स्वरूप है वैसे ही परदेह में विद्यमान आत्मा भी उसी प्रकार की है, यह बात तुम अनुमान से जान सकते हो। इस अनुमान का रूप यह होगा--परदेह-गत आत्मा भी ज्ञान स्वरूप ही है, क्योंकि उसमें प्रवृत्ति-निवृत्ति है। यदि परदेह-गत अात्मा ज्ञान-स्वभाव न हो तो वह स्वात्मा के समान इष्ट में प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्ति नहीं कर सकती, अत: उसे ज्ञान स्वरूप ही मानना चाहिए। [1998] पुनश्च, मुक्तात्मा को अज्ञानी कह कर तुम महान् विपर्यास करते हो / देह युक्त अवस्था में जब तक जोव वीतराग नहीं हो जाता तब तक उसके ज्ञान पर आवरण होते हैं, अतः वह सब कुछ नहीं जान सकता; किन्तु देह का नाश होने पर उस पात्मा के सभी प्रावरण दूर हो जाते हैं, अतः वह शुद्धतर होकर स्वच्छ आकाश में विद्यमान सूर्य के समान अपने सम्पूर्ण ज्ञान-स्वरूप में प्रकाशित होती है। इन्द्रियाँ प्रकाश या ज्ञान-स्वरूप नहीं है जिससे कि उनके अभाव में प्रात्मा में ज्ञान 1. गाथा 1994. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org