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________________ 168 मणधरवाद [णधर भगवान् -व्याप्ति के नियामक दो सम्बन्ध हैं कार्य-कारह भाव तथा व्याप्य-व्यापक भाव / इन दोनों में से प्रस्तुत हेतु (साध्य) में एक भो सम्बन्ध घटित नहीं होता, इसलिए प्रतिबन्ध का अभाव है। इसका स्पष्टोकरण इस प्रकार है --- यदि जीवत्व करणों या इन्द्रियों का कार्य हो, जैसे कि धम अग्नि का कार्य है तो अग्नि के अभाव में धूम के अभाव के समान, करणों के अभाव में जीवत्व का भी अभाव हो जाए। किन्तु जीवत्व जीव का अनादि-निधन पारिणामिक भाव होने से नित्य है, इसलिए वह किसी का भो काय नहीं बन सकता, अतः करणों का अभाव होने पर भा जोवत्व का अभाव नहीं माना जा सकता। अपि च, यदि जीवत्व करणों का व्याप्य हो जैसे कि शिशा वक्षत्व का व्याप्य है, तो व्यापक वृक्षत्व के अभाव में शिशपा के समान करणों के अभाव में जीवत्व का भी अभाव हो जाएगा, किन्तु जीवत्व तथा करणों में व्याप्य-व्यापक भाव हो नहीं है, क्योंकि दोनों अत्यन्त विलक्षण हैं। करण मूर्त या पौद्गलिक हैं जब कि. जीव अमूर्त होने के कारण उनसे अत्यत्त विलक्ष ग है, अतः कर गाभाव में भी जोवत्व का अभाव नहीं होता / फलतः मुक्तावस्था में भो जीवत्व है ही। [1964] प्रभास-मुक्तात्मा में जीवत्व चाहे मान लिया जाए किन्तु आकाश के समान करण-हीन होने के कारण उसे ज्ञानो कैसे माना जा सकता है ? इन्द्रियों के बिना भी ज्ञान है भगवान्-इन्द्रियादि करण' मूर्त होने के कारण घटादि के समान उपलब्धि क्रिया (ज्ञान-क्रिया) का कर्ता नहीं बन सकते। वे केवल ज्ञान-क्रिया के द्वार हैं, साधन हैं। उपलब्धि का कर्ता तो जीव ही है।' [1665] ज्ञान का अन्वयव्यतिरेक यात्मा के साथ है, इन्द्रियों के साथ नहीं। कारण यह है कि इन्द्रियों का व्यापार बन्द हो जाने पर भी स्मरणादि ज्ञान होते हैं तथा इन्द्रियों के व्यापार के अस्तित्व में भी अन्यमनस्क यात्मा को ज्ञान नहीं होता / अतः यह नहीं माना जा सकता कि इन्द्रियों के होने पर ही ज्ञान होता है तथा मुक्तात्मा में इन्द्रियों का अभाव होने से वह अज्ञानो (ज्ञानाभावयुक्त) है। करणों से भिन्न आत्मा ही ज्ञान प्राप्त करती है। जैसे घर के झरोखे से देवदत्त देखता है वैसे ही अात्मा इन्द्रियरूपो झरोखों से ज्ञान प्राप्त करती है। घर का ध्वंस होने पर देवदत्त के ज्ञान का विस्तार बढ़ जाता है। इसी प्रकार शरीर का नाश हो जाने पर इन्द्रियरहित प्रात्मा ही निर्वाध रूप से समस्त वस्तुओं का ज्ञान करने में समर्थ होती है / [1966] 1.-2. इस भावार्थ वाली गाथाए पहले भी आई हैं ----1657-16.0. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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