________________ प्रभाम। निर्वाण-चर्चा J67 मुक्तात्मा अजीव सिद्ध होती है, किन्तु यदि ग्राप उसी हेतु से मुक्तात्मा को अजीव मानते हैं तो आपका सिद्धान्त अवश्यमेव दूषित हो जाता है; क्योंकि आप मुक्तात्मा को अजीव न मान कर जीव ही स्वीकार करते हैं। फलतः यह आपत्ति मेरे सिद्धान्त पर लागू न होकर अापके सिद्धान्त पर ही लागू होती है। भगवान् केवल करणाभाव के कारण तुम प्रात्मा में आकाश के समान अज्ञान सिद्ध करते हो, इसलिए मैंने तुम्हारी बात पर उक्त आपत्ति की है कि मुक्तात्मा अजीव भी सिद्ध होगी। वस्तुतः मुक्तात्मा अज्ञानी भो नहीं है और अजीव भी नहीं है / [1663] | प्रभास-पहले यह बताएं कि मुक्तावस्था में जीव अजीव क्यों नहीं बन जाता? आकाश में करण का अभाव है, इसलिए वह अजीव है। इसी प्रकार मुक्त में भी करणाभाव हो जाता है, अतः यह बात माननी चाहिए कि वह भी अजीव हो जाता है। मुक्तात्मा अजीव नहीं बनता भगवान -मक्तावस्था में जीव अजीव रूप नहीं हो सकता, क्योंकि किसी भी वस्तु की स्वाभाविक जाति अत्यन्त विपरीत जाति-रूप में परिणत नहीं हो सकती। जीव में जीवत्व, द्रव्यत्व तथा अमूर्तत्व के समान स्वाभाविक जाति है, इसलिए जैसे जीव कभी भी द्रव्य के स्थान पर अद्रव्य तथा अमूर्त के स्थान पर मूर्त नहीं हो सकता उसी प्रकार जीव के स्थान पर अजीव भी नहीं हो सकता। जैसे आकाश की अजीव जाति स्वाभाविक है, इसलिए वह कभी भी अत्यन्त विपरीत-रूप जीवत्व जाति में परिणत नहीं हो सकती, वैसे ही जीव की स्वाभाविक जीवत्व जाति अत्यन्त विपरीत स्वरूप अजीवत्व जाति में परिणत नहीं हो सकती। प्रभास-यदि मुक्तात्मा कभी भी अजीव नहीं बनता तो आपने यह बात कैसे प्रतिपादित की कि करणाभाव से मुक्तात्मा अजीव भी बन जाएगा? भगवान्—मैं तुम्हें यह बता ही चुका हूँ कि मेरा यह हेतु स्वतन्त्र हेतु नहीं है, अर्थात् मैंने स्वतन्त्र हेतु का प्रयोग कर मुक्तात्मा को अजीव सिद्ध नहीं किया है किन्तु जो लोग करणों के अभाव के कारण मुक्त जीवों को अज्ञानी मानते हैं, उन्हें उसी आधार पर मुक्त जीवों को अजीव भी मानना चाहिए, यह प्रसंगापादन (अनिष्टापादन) मैंने किया है। वस्तुतः इस हेतु से अर्थात् करण के अभाव से मुक्तात्मा अजीव सिद्ध नहीं होती है। प्रभास-यह कैसे? __ भगवान्–उक्त हेतु में व्याप्ति (प्रतिबन्ध) का अभाव है, अतः इस से साध्य सिद्ध नहीं हो सकता। प्रभास-आप यह किस लिए कहते हैं कि व्याप्ति का अभाव है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org