________________ 166 गंणधरवाद [ गणधर - प्रभास-यह कैसे ज्ञात होगा कि मुक्तात्मा परम ज्ञातो है पोर उसमें जन्मजरादि कोई भी बाधा नहीं है ? भगवान् -ज्ञान के प्रावरण का सर्वथा अभाव होने से मुक्तात्मा परम ज्ञानी हैं / प्रावरण का प्रभाव इसलिए है कि मुक्तात्मा में ज्ञानावरण के हेतुओं का ही अभाव है। मुक्तात्मा में जन्म-जरादि बाधा का भो प्रभाव है, क्योंकि बाधा के हेतुभूत वेदनोय प्रादि समस्त कर्मों का मुक्तात्मा में प्रभाव होता है। इसी वस्तु को अनुनान प्रमाण से हम निम्न प्रकारेण कह सकते हैं-मुक्तात्मा चन्द्र के समान स्वाभाविक स्वप्रकाश से प्रकाशित है, क्योंकि उसमें प्रकाश के समस्त आवरणों का अभाव हो गया है। कहा भी है ____ "स्वाभाविक भावशुद्धि सहित जीव चन्द्र के समान है, चन्द्रिका के समान उसका विज्ञान है तथा बादलों के सदृश उसका प्रावरण है।" तथा मुक्तात्मा ज्वरापगम से नोरोग हुए व्यक्ति के समान अनाबाध सुख वाला है क्योंकि उसमें बाधा के समस्त हेतुप्रों का अभाव है। कहा भी है—"बाधा के अभाव तथा सर्वज्ञता के कारण मुक्त जोव परमसुखी होता है। बाधा का अभाव हो स्वच्छ ज्ञाता का परम सुख होता है।" [1662] प्रभास -प्राप मुतात्मा को परम ज्ञानो कहते हैं, किन्तु वस्तुतः वह अज्ञानी है; क्योंकि प्राकाश के समान उसमें भो करण (ज्ञान सावन इन्द्रियों) का अभाव है। इन्द्रियों के प्रभाव में भी मुक्त ज्ञानी है भगवान -करणों अर्थात ज्ञानेन्द्रियों के अभाव के कारण यदि तुम मुक्त जोव को अज्ञानी सिद्ध करते हो तो उसो हेतु से प्राकाश के दृष्टान्त से मुक्तात्मा अजीव भो सिद्ध होगी। ऐसो स्थिति में तुम्हारे द्वारा दिया गया हेतु 'ज्ञानेन्द्रिय का अभाव' विरुद्ध हो जाएगा, अर्थात् वह सद्धेतु नहीं रहेगा। विरुद्ध हो जाने का कारण यह है कि इस हेतु से मुक्तात्मा के तुम्हें अभोष्ट जोव-स्वरूप के सर्वथा विरुद्ध अजीवत्व' की सिद्धि होगी। मुक्तात्मा को अज्ञानी मान कर भी तुम उसे जीव तो मानते हो हो, किन्तु 'करण का अभाव' हेतु मुक्तात्मा को अजीव सिद्ध करेगा। __ प्रभास-उक्त हेतु विरुद्ध नहीं है / कारण यह है कि मैं मुक्तात्मा को जीव ही मानने का आग्रह नहीं करता। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं कि उक्त हेतु से 1. स्थिर: शीतांशु वज्जीवः प्रकृल्या भावगु द्धया / चन्द्रिकाव च्च विज्ञानं तदावरणमभ्रवत् / / योगदृष्टिसमच्चय 181. 2. स व्पाबाधाभावात् सर्वज्ञत्वाच्च भवति परम मुखी / आवाधाभावोऽत्र स्वच्छप जय परमसुखन् / तत्वार्थ-भाष्य-टीका पृ०318 (द्विती! भग) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org