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________________ प्रभास निर्वाण-चर्चा 165 से गृहीत नहीं होते, परन्तु जीभ उनका ग्रहण कर सकती है। कस्तूरी अथवा कपूर के सन्मुख रखे हुए पुद्गल आँखों से दृष्टिगोचर होते हैं, किन्तु यदि वायु उन्हें अन्यत्र ले जाए तो उनका ग्रहण अाँख के स्थान पर नाक से हो सकता है: यदि उसमें व्यवधान बढ़ जाए तो सूक्ष्म हो जाने के कारण वे नाक से भी गृहीत नहीं होते। नाक अधिक से अधिक नव-योजन तक के प्रदेश से आने वाली गन्ध को जान सकता है / इसी तरह नमक चक्षुर्गा है परन्तु पानी में मिला देने के पश्चात वह रसनेन्द्रिय द्वारा ग्राह्य हो जाता है, चक्षुर्णाह्य नहीं रहता / उसी पानी को यदि उबाला जाए तो नमक पुनः आँखों से दिखाई देनेलगता है। इस प्रकार पुद्गलों का स्वभाव ही ऐसा है कि वे देश कालादि की सामग्री के भेद से विचित्र परिणाम प्राप्त करते हैं। इसीलिए दीपक पहले चक्षुह्यि होता है परन्तु बुझ जाने के बाद वह अाँख से दिखाई नहीं देता, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। [1986] अपि च, वायु स्पर्शनेन्द्रिय से ही ग्राह्य है, रस जीभ से हो, गन्ध नाक से ही, रूप चक्षु से ही तथा शब्द श्रोत्र से ही / इस प्रकार भिन्न-भिन्न पदार्थ किसी एक इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होने पर भी परिणामान्तर को प्राप्त कर अन्य इन्द्रियों द्वारा गृहीत होने की योग्यता वाले बन जाते हैं, उसी प्रकार दीपारिन भी पहले अाँखों से उपलब्ध थी, किन्तु बुझ जाने पर उसकी गन्ध आती है, अतः वह घ्राणेन्द्रिय ग्राह्य बन जाती है, ऐसा मानना चाहिए। अतः यह नहीं माना जा सकता कि दीप का सर्वथा नाश हो जाता है। [1960] इस प्रकार दोप जब निर्वाण प्राप्त करता है तब वह परिणामान्तर को प्राप्त होता है, सर्वथा नष्ट नहीं होता, उसी प्रकार जीव भी जब परिनिर्वाण प्राप्त करता है तब वह सर्वथा नष्ट नहीं हो जाता / वह तो निराबाध-प्रात्यन्तिक सुखरूप परिणामान्तर को प्राप्त करता है। अतः दुःख-क्षय से युक्त जीव का विशेषावस्था को ही निर्वाण मानना चाहिए। [1661] प्रभास-यदि आत्मा की दुःख-क्षय वाली अवस्था ही मोक्ष है और उसमें शब्दादि विषयों का उपभोग नहीं है तो फिर मुक्तात्मा को सुख कहाँ से प्राप्त होता है ? दुःख का अभाव ही सुख नहीं कहलाता? विषय-भोग के अभाव में भा मुक्त को सुख होता है भगवान्-मुक्त जीव को परम मुनि के समान प्रकृत्रिम, मिथ्याभिमान से रहित स्वाभाविक प्रकृष्ट सुख होता है, क्योंकि प्रकृष्ट ज्ञान की प्राप्ति के बाद उसमें जन्म, जरा, व्याधि, मरण, इष्ट-वियोग, अरति, शोक, क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, काम, क्रोध, मद, शाठ्य, तृष्णा, राग-द्वेष, चिन्ता, औत्सुक्य आदि समस्त बाधाओं का अभाव होता है। काष्ठादि जड़ पदार्थों में भी जन्मादि की बाधा नहीं होती, किन्तु उन्हें सुखो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनमें ज्ञान का अभाव है। मुक्तात्मा में ज्ञान भी है और बाधा-विरह भी, अतः उसमें सुख भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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