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________________ 164 गणधरवाद [ गणधर की धूल / ये सभी विकार प्रत्यक्ष प्रमाण से ही सिद्ध हैं, अतः दीप के समान जीव का भी सर्वथा नाश नहीं माना जा सकता। [1987] प्रभास-- यदि दीप का सर्वथा नाश नहीं होता तो वह बुझने के उपरान्त साक्षात् दिखाई क्यों नहीं देता ? भगवान् -बुझने के बाद वह अन्धकार परिणाम को प्राप्त करता है और यह प्रत्यक्ष ही है। अतः यह तो नहीं कहा जा सकता कि वह दिखाई नहीं देता / फिर भी बुझने के बाद दोप दीप के रूप में क्यों दिखाई नहीं देता? इस का समाधान यह है कि दीपक उत्तरोत्तर सूक्ष्म-सूक्ष्मतर परिणाम को धारणा करता है, अतः विद्यमान होकर भी वह दृष्टिगोचर नहीं होता। जेसे काले बादल बिखर जाने के बाद अपने सूक्ष्म परिणामों के कारण विद्यमान होते हुए भी अाकाश में दृग्गोचर नहीं होते तथा जैसे हवा के कारण उड़ जाने वाला अंजन (सुरमा) विद्यमान होकर भी अपनो सूक्ष्म रज के कारण दिखाई नहीं देता, वैसे ही दो प भी बुझने के पश्चात् अस्ति-रूप होते हुए भी सूक्ष्म परिणाम के कारण दृष्टिगोचर नहीं होता / अर्थात वह असत् होने के कारण नहीं, अपितु सूक्ष्म होने के कारण हमारे देखने में नहीं पाता, इसलिए दोप का सर्वथा नाश नहीं माना जा सकता। फलतः उसके दृष्टान्त से निर्वाण में जीव का सर्वथा अभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता। [1988] प्रभास-पहले दीप आँखों से दिखाई देता था किन्तु बुझने के बाद वह सूक्ष्मतादि के कारण दिखाई नहीं देता, यह बात आपने कही है, किन्तु वह सूक्ष्म क्योंकर हो जाता है ? पुद्गल के स्वभाव का निरूपण भगवान्- पुद्गल का ऐसा स्वभाव है कि वह विचित्र परिणाम धारण करता है। इसीलिए सुवर्णपत्र, नमक, सूठ, हरड़, चित्रक, (एरण्ड), गुड़ ये सभी पुद्गल-स्कंध प्रथम चक्षुरादि इन्द्रियों से ग्राह्य होते हैं, किन्तु अन्य द्रव्य क्षेत्र काल भाव-रूप सामग्री मिलने से वे ऐसे बन जाते हैं कि तत्-तद् इन्द्रिय ग्राह्य न रह कर अन्य इन्द्रिय से ग्राह्य हो सकते हैं अथवा वे किसी अवस्था में इन्द्रियों द्वारा अग्राह्य भी बन जाते हैं / जैसे कि यदि सोने का पत्र बनाया हो तो वह सोना चक्षु इन्द्रियों से गृहीत किया जाता है, किन्तु यदि उसे शुद्धि के उद्देश्य से भट्टी में डाला जाए और वह राख के साथ मिल जाए तो वह आँखों से दिखाई नहीं देता किन्तु स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा उसका ज्ञान हो सकता है / तदुपरान्त यदि पुनः प्रयोग द्वा / सुवर्ण को भस्म से पृथक् किया जाए तो वह पुनः आँखों से दिखाई देने लगता है। इसी प्रकार नमक, सोंठ, हरड़, एरण्ड, गुड़ ये सब पहले तो आँखों द्वारा उपलब्ध होते हैं, किन्तु यदि उन्हें सूप में मिला दिया जाए अथवा उनका चूर्ण बनाया जाए तो वे क्वाथ, चूर्ण, अवलेह आदि परिणामान्तर को प्राप्त करते हैं, अतः वे केवल आँखों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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