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________________ 160 गणधरवाद [ गणधर निवारण-विषयक मतभेद तुम यह भी सोचते हो कि वस्तुतः निर्वाण कैसा होगा ? कोई कहता है कि दीप-निर्वाण के समान जीव का नाश हो निर्वाण है। जैसे कि “जैसे दीप जब निर्वाण को प्राप्त होता है तब वह पृथ्वी में नहीं समाता, आकाश में नहीं जाता, किसी दिशा अथवा विदिशा में भी नहीं जाता, किन्तु तेल के समाप्त हो जाने पर वह केवल शान्त हो जाता है-बुझ जाता है; वैसे हो जीव भो जब निर्वाण को प्राप्त होता है तब वह पृथ्वी या आकाश में नहीं जाता, किसी दिशा या विदिशा में नहीं जाता परन्तु क्लेश का नाश होने से केवल शान्ति प्राप्त करता है-समाप्त हो जाता है।" और भी, कोई कहता है कि सत् अर्थात् विद्यमान जीव के राग, द्वेष, मद, मोह, जन्म, जरा, दुःख, रोगादि का क्षय हो जाने से जो एक विशिष्ट अवस्था उत्पन्न होती है, वही मोक्ष है / जैसे कि--- ___ "केवलज्ञान व केवलदर्शन स्वभाव वाला, सर्व प्रकार के दुःख से रहित, राग-द्वेषादि अान्तरिक श षों को क्षीण कर देने वाला मुक्ति में गया हुआ जीव आनन्द का अनुभव करता है।" इस प्रकार के विरोधी मत सुन कर तुम्हें सन्देह होता है कि इन दोनों में से निर्वाण का कौन सा स्वरूप वास्तविक माना जाए ? [1975] तुम यह भी मानते हो कि जीव तथा कर्म का संयोग * आकाश के समान अनादि है, इसलिए जोव और आकाश के अनादि संयोग के समान जीव व कर्म के संयोग का भी नाश नहीं होता। अर्थात् कभी भी संसार का प्रभाव नहीं होता, फिर निर्वाण की बात कैसे की जा सकती है ? __ इस प्रकार तुम अनेक विकल्पों के जाल में फंसे हुए हो, जैसे कि निर्वाण का स्वरूप क्या माना जाए ? अथवा निर्वाण का सर्वथा अभाव स्वीकार किया जाए या नहीं ? तुम इस सम्बन्ध में कोई निर्णय नहीं कर सके, किन्तु मैं इस विषय में तुम्हारे सन्देहों का समाधान करता हूँ। तुम उसे ध्यानपूर्वक सुनो। [1976] प्रभास-आप पहले यह स्पष्ट करें कि जीव-कर्म के अनादि संयोग का वियोग कैसे सम्भव हो सकता है ? 1. दीपो यथा नितिमभ्युपेतो, नैवानि गच्छति नान्तरिक्षम् / दिशं न काञ्चित् विदिशं न काञ्चित्, स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् / / जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् / / दिशं न काञ्चित् विदिशं न काञ्चित्, क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम् / / सौन्दरनन्द 16.28-29 2. केवलसंविदर्शनरूपाः सर्वातिदुःखपरिमुक्ताः / मोदन्ते मुक्तिगता, जीवाः क्षीणान्तरारिगणाः / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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